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________________ (१५२) करनेको पैदा हुआ हूं, मैं कभी अनुग्रह नहीं कर सकता, मैं शिवजीकी इच्छासे अपनी इच्छा पूर्वक प्रवेश होता हूं. इसके अनंतर ' बाणासुर भी अपने त्रिपुरको जलता हुआ देखता भया ॥ ५१-५३ ॥ और सिंहासन पर बैठ कर यह वचन बोला कि, थोडे पराकवाले दुराचारी देवताओंने मेरा नाश. किया है यह निश्चय शिवजीका ही प्रभाव है ॥ ५४ ॥ शिवजीने परीक्षा किये बिना ही मुझको दग्ध कर दिया है, शिवजीके विना मुझको कोई भी मारनेको समर्थ नहीं है. ॥ ५५॥ ऐसे कह कर बाणासुर अपने पुत्र मित्रादिकोंको त्याग अपने शिरके उपर शिवके लिंगको स्थापित कर नगरके बाहिर निकला ॥५६॥ ___ इस पूर्वोक्त लेखसे शिवजीने कितने ही निरापराधी हंस कारंडवादि पक्षिओंको, स्त्री बाल बच्चोंके समूहको तथा इसी तरह अनेक अन्य प्राणी गणोंको जला कर भस्म कर दिये, क्या इस कर्मको कोई भी दयालु न्यायीहृदय अच्छा कह सकता है ?. इस घातक कर्मसे शिवजीको किस पंक्तिमें रखना चाहिये ? या फैसला न्यायी-हृदयवाले मनुष्यों पर ही रखना समझ कर मैं इस विषयमें कुछ नहीं लिखता. श्रावक-भगवन् ! ऐसे ऐसे कर्म करनेवाले देवों पर इन लोगोंकी श्रद्धा किस तरहसे जमी रहती है ? यह एक बडा भारी सवाल. मुझको बार बार विचार चक्रमें फंसा देता है, परंतु आपने प्रथमके व्याख्यानोमें मिथ्यात्वका चित्र खींच कर ऐसी खूबीसे दिखलाया है कि जिस पर ध्यान. जानेसे तुरत समाधान हो जाता है कि, मिथ्यात्व हलाहल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034555
Book TitleMat Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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