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________________ मारवाड़ का इतिहास षड्यन्त्र करने पर भी राव रणमल्लाजी के कारण उसे सफलता न हुई ( जैसा इतिहास से प्रकट होता है ), तब उसने कम-से-कम उनसे बदला लेने और अपने पैतृक - राज्य में लौट कर बसने के लिये ही इनको मरवाने का उद्योग किया हो । यह हमारा अनुमानमात्र है । परन्तु नीचे उद्घृत घटनाओं से इसकी पुष्टि होती है: राजमाता का चंडा से राजकार्य ले लेना, इसके बाद चंडा का मेवाड़ के सहजशत्रु मांडू के सुलतान के पास जाकर रहना, मोकल की हत्या होने पर भी चंडा, उसके भाई राघवदेव और मेवाड़ के सरदारों का चुपचाप बैठ रहना, मोकलजी के हत्याकारियों में से महपा का भागकर चंडा के पास मांडू जाना और उसके द्वारा वहां के सुलतान का आश्रय पाना, महपा के कारण कुम्भाजी और सुल्तान के वीच विरोध होने पर भी चूंडा का सुलतान के पास ही रहना यादि । इनके अलावा 'वीरविनोद' ( भा० १, पृ० ३२३ - २४ ) और 'राजपूताने के इतिहास' (भा० २, पृ० ६०३ ) में लिखा है - " जोधा की यह दशा देखकर महाराणा की दादी हंसाबाई ने कुम्भा को अपने पास बुलाकर कहा कि मेरे चित्तौड़ व्याहे जाने में राठोड़ों का सब प्रकार से नुक़सान ही हुआ है । रणमल्लने मोकल को मारनेवाले चाचा और मेरा को मारा, मुसलमानों को हराया और मेवाड़ का नाम ऊँचा किया; परन्तु अन्त में वह भी मरवाया गया, और आज उसी का पुत्र जोधा निस्सहाय होकर मरुभूमि में मारा-मारा फिरता है । इस पर महाराणा ने कहा कि मैं प्रकट रूप से तो चूंडा के विरुद्ध जोधा को कोई सहायता नहीं दे सकता, क्योंकि रणमल्ल ने उसके भाई राघवदेव को मरवाया है; आप जोधा को लिख दें कि वह मंडोवर पर अपना अधिकार कर ले, मैं इस बात पर नाराज न होऊँगा ।" इससे भी स्पष्ट होता है कि राव रणमल्लजी ने षड्यन्त्रकारियों से मेवाड़ की रक्षा करने के साथ ही मांडू के सुलतान महमूद खिलजी प्रथम को हराकर हर तरह से महाराणाओं का उपकार ही किया था । परन्तु महाराणा कुम्भाजी ने चंडा के पक्षवालों के बहकाने में आकर उन्हें छल से मरवा डाला । यद्यपि इसके बाद शीघ्र ही महाराणा को अपनी गलती मालूम हो गई, तथापि उस समय तक वह चंडा के दबाव में जा चुके थे । ऐसी हालत में राव रणमल्लजी पर झूठा दोष लगाना सूर्यपर धूल उछालने के समान ही प्रतीत होता है । 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034553
Book TitleMarwad Ka Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishweshwarnath Reu
PublisherArcheaological Department Jodhpur
Publication Year1938
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size369 MB
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