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________________ राव रणमल्लजी राव रणमल्लजी उदार, चतुरे और वीर पुरुष थे । इन्होंने पिता की आज्ञा से पैतृक राज्य तक छोड़ दिया था । इन्हीं की कुशलता और वीरता से महाराणा मोकलजी और विशेषकर कुम्भाजी की विपत्ति के समय मेवाड़-राज्य की रक्षा हुई थी। इंडिया की १६०७-१६०८ की वार्षिक रिपोर्ट, पृ. २१४ ) । कर्नल टॉड और सूर्यमल ने राव रणमल्लजी का महाराणा मोकलजी के समय मारा जाना लिखा है। ( देखो क्रमशः ऐनाल्स ऐंड ऐन्टिक्विटीज़ ऑफ राजस्थान, भा० १, पृ. ३३२; और 'वंशभास्कर', भा० ३, पृ० १८७२ ) यह भी ठीक नहीं है । 'वीरविनोद' और मुहणोत नैणसी की ख्यात में लिखा है कि महपा आदि के आक्रमण करते ही रणमल्लजी चारपाई से बंधे होने पर भी उसको लिए हुए उठ खड़े हुए, और कई शत्रुओं को मारकर वीरगति को प्राप्त हुए । कहीं-कहीं उनका लेटे-लेटे ही कई शत्रुओं को मारकर स्वर्ग सिधारना लिखा है। १. कहते हैं कि राव रणमल्लजी ने निम्नलिखित गांष दान दिए थे:- १ कुंवारडा ( जालोर परगने का ), २ धर्मद्वारी ३ पुनायतां (पाली परगने के ) पुरोहितों को और ४ बीसा वास ( जोधपुर परगने का ) चारणों को । २. प्रसिद्धि है कि रणमलजी ने अपने राज्य-भर में एक ही प्रकार के नाप और तोलका प्रचार किया था। ३. इनकी वीरता का प्रमाण राणपुर ( गोडवाड़ ) से मिला वि० सं० १४६६ ( ई. सन् १४३६) का महाराणा कुंभाजी का लेख है । उसमें महाराणा कुंभाजी के प्रथम सात वर्षों के कार्यों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उन्होंने सारंगपुर ( मालवा ), नागोर, गागरोन, नराणा ( जयपुर ), अजमेर, मंडोर, मांडलगढ़, बूंदी, खाटू, चाटसू ( जयपुर ) प्रादि विजय किए थे। परन्तु वास्तव में इस लेख के लिखे जाने तक भी कुंभाजी की अवस्था करीब १२-१३ वर्ष की ही थी। इसलिये मंडोर को छोड़कर, जहां पर रणमल्लजी की मृत्यु के बाद रावत चूंडाने अधिकार किया था, बाकी सब स्थानों की वि० सं० १४६५ (ई. सन् १४३८) तक की, विजयों का श्रेय, मेवाड़ के एक मात्र निरीक्षक राव रणमलजी को ही देना होगा। इसकी पुष्टि राजपूताने के इतिहास में की इन पंक्तियों से भी होती है:"चंडा के चले जाने पर रणमल्ल ने राज्य का सारा काम अपने हाथ में कर लिया और सैनिक विभाग में राठोड़ों को उच्च पद पर नियत करता रहा ।” __ (पृ० ५८४) इससे स्पष्ट प्रकट होता है कि रणमल्लजी के समय उनके नियत किए इन्हीं राठोड़-सेनापतियों ने उनकी अधीनता में अनेक प्रदेशों को जीत मेवाड़-नरेश को गौरवशाली बनाया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034553
Book TitleMarwad Ka Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishweshwarnath Reu
PublisherArcheaological Department Jodhpur
Publication Year1938
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size369 MB
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