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________________ मंत्रीश्वर विमलशाह पराक्रम और उनकी उत्तरोत्तर उन्नति सह्य नहीं थी। विमल का नाश करने का एक मात्र कारण यही था । किसी भी उपाय से 'येन केन प्रकारेण' राजा एवं उसके साथी विमल का वध करना चाहते थे। नगर निवासियों के झुण्ड चारों ओर से चींटी दल की तरह उभर रहे थे । पहलवान तैयार होकर प्रतीक्षा कर रहे थे। ... विमलशाह यथा समय राजसभामें आ पहुँचे और यथा स्थान आसीन हो गए। धीरे से कुटिल हँसी हँसते हुए महाराजा ने कहा विमलशाह ! तुम हमारे सर्वस्व हो । तुम हमारे नाक और तुम ही हमारे रक्षक हो । जरा देखो तो ये पहलवान दूर देश से कुश्ती लड़ने के लिये यहाँ आये हैं । इनका गर्व अपार है, इनका कहना है कि हमारे समान पराक्रमी कोई अन्य दीखता नहीं। यदि हो तो सामने आवे मुझे तो तुम्हारे समान पराक्रमी अन्य कोई नहीं दीखता । अतः इनको पराजित कर इनका दर्प दमन करो। विमलशाह स्वस्थ मन से सब कुछ सुन रहे थे। जिन मंत्रीश्वर की धाक से वनराज भी कॉप उठा था वहाँ इन विचारे पहलवानों की क्या हस्ती ? विमल ने भुजाएँ सहलाई, पहलवानों और विमल की कुश्ती प्रारम्भ हुई । राजा और उसके साथी एकटक देख रहे थे । विमल अभी धराशायी हो जाएगा, अभी पहलवान उसे पछाड़ डालेंगे और अपनी मनोकामना पूर्ण हो जायगी, इस प्रकार के मन सूबे बांध रहे थे । पहलवानों के दाव पेच खेले जा रहे थे । सभी एकटक देख रहे थे। पर विमल तो विमल ही थे । प्रबल पुण्य वालों का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034552
Book TitleMantrishwar Vimalshah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtivijay Gani
PublisherLabdhi Lakshman Kirti Jain Yuvak Mandal
Publication Year1967
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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