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________________ ३ : पारस्परिक शत्रुता के दिन राजा भीमदेव बिना किसी विलंब के बड़े परिवार के साथ विमलशाह के यहाँ पहुँचे । मंत्रीश्वर के महल को निर्माण कला देखते ही महाराज तो मंत्र मुग्ध से हो गये । प्रथम प्रेताली की प्रथम प्राचीर में प्रविष्ट होते ही भीमदेव समझे कि विमल के भवन का यह मुख्य द्वार होगा ! परन्तु ऐसे तो एक दो नहीं, सात सात प्राचीर पार किये तब भी उनका निवास स्थान नहीं आया। महाराजा तो भारी असमंजस में पड़ गए । उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही । महल - के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही ऐसा लगा मानो स्वर्ग का विमाम हो । प्रशिक्षित सेवक वृन्द चारों ओर खड़े हैं । उपवन का मंद मधुर समीर - आनन्द में वृद्धि कर रहा था । वातावरण प्रफुल्ल था । चारों ओर प्रकाश हो - प्रकाश फैला हुआ था । काँच के झूमर लटक रहे थे । आरामकुर्सियों, गुलाबदानियों, गद्दी तकियों तथा गलीचों की शोभा न्यारी ही थी । महाराना तो यह सब अपनी आँखों से देखकर आत्म विस्मृत से बन चुके थे । काँच की तख्तियाँ खूब चमक रही थीं । फव्वारों से जलधारा छूट रही थी । विभिन्न वाद्य यन्त्रों का मधुरनाद गूँज रहा था । विमलशाह के हर्ष का चारा- पार नहीं था। आज मेरे आँगन में मेरे स्वामी का आगमन । एक ओर तोरण झूल रहे थे, दूसरी ओर लुभावनी पुतलियाँ रज्जु संचालन द्वारा चीची झुक कर राजाधिराज का सत्कार कर रही थी । कभी नृत्य | = Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034552
Book TitleMantrishwar Vimalshah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtivijay Gani
PublisherLabdhi Lakshman Kirti Jain Yuvak Mandal
Publication Year1967
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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