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________________ * पूर्वकाल - कपिल नामक राजपुत्र मरीचि के पास आया, धर्मोपदेश सुनकर दीक्षा के लिए तैयार होगया, त्रिदण्डी ने ऋषभ देव स्वामी के पास प्रव्रज्या लेने का संकेत किया; वह वहाँ गया, समवसरण की रचना देखकर वापस लौट आया और कहने लगा कि ऋषभदेव में तो कुछ भी धर्म नहीं है, वे तो राज्य लीला में मग्न हैं, आप में धर्म हो तो मुझे दीक्षा देदो मरीचिने सोचा यह मेरे योग्य ही है, बस तुरन्त ही यह कहकर कि हाँ मेरे में धर्म है ! उसे दीक्षा देदी; उसमें धर्म न होते हुए भी 'मेरे में धर्म है। यहाँ उत्सूत्र (सिद्धान्तों के खिलाफ) प्ररूपणा कर कोटानुकोटि सागर प्रमाण संसार भ्रमण उपार्जन किया. एक वक्त प्रभु को वन्दन कर भरत चक्रवर्ती ने प्रश्न किया कि भगवान् ! इस समय समवसरण में कोई भावि तीर्थकर का जीव है ? उत्तर मिला कि-बाहिर द्वार देश पर रहा हुवा तेरा पुत्र मरीचि जो त्रिदण्डी के वेश में है, वह 'महावीर' नाम का चौवीसवा तीथकर होगा। उसके पहिले भरत क्षेत्र में वासुदेव होगा और महाविदेह में चक्रवर्ती होगा, यह सुन हर्षित होकर भरत महाराज मावि तीथकर की हैसियत से मरीचि को वन्दन कर अपने घर पर चलेगये। इससे मरीचि फूला न समाया, गर्वान्वित होकर यह कहने लगा- मेरा कुल कितना उच्च है मेरे पितामह तीर्थकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034546
Book TitleMahavir Jivan Prabha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagar
PublisherAnandsagar Gyanbhandar
Publication Year1943
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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