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________________ * कैवल्य * [११५ स्मा पुण्य करता है । यह अजुर्वेद के उपनिषद की ऋचा आत्मा का अस्तित्व बताती है-हे इन्द्रभूते ! तू वेद-वाक्य पढ़ा है , पर उसका पूरा अर्थ नहीं जानता, यह आत्मा सारे शरीर में व्याप्त है और जुदा भी है . जैसे दूध में घी, तिलों में तैल, काष्ट में अग्नि, पुष्प में सुगन्ध और चन्द्रकान्त में अमृत है , वैसा ही शरीर-आत्मा का संयोग सम्बंध है, इसमें किञ्चित भी संदेह का अवकाश नहीं है। दान-दया-दमन, इन तीन दकारों को जानने वाला जीव है- इतनी स्पष्ट प्रमाणित व्याख्या सुनकर अपनी प्रतिज्ञानुसार ५०० छात्रों सहित गौतम-ऋषी परमात्मा के शिष्य बन गये. प्रकाश- अहंकार भी एक बड़ा विचित्र दुर्गुण है, इससे छोटे बड़े से बाथै भीड़ता है निर्बल बलवान के सामने होजाता है, असक्त ससक्त के मुकाबिले में खड़ा रहता है, अल्पज्ञ विशेषज्ञ से वाद विवाद करने लग जाता है , छोटे मुँह बड़े डींग हांकने लगता है , अहंकार से सभ्यता- शिष्टता-गुणग्राहकता और नम्रता का दिवाला निकल जाता है: यह दीपक की तरह स्पष्ट है- बाहुबली, राजा रावण कंस, गौशालका आदि अहंकारियों की क्या दशा हुई, वह उनके इतिहासों से व्यक्त है, वर्तमान में जर्मनी-जापान-इटली आदि अभिमानी देशों की युद्धकालीन कैसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034546
Book TitleMahavir Jivan Prabha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagar
PublisherAnandsagar Gyanbhandar
Publication Year1943
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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