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________________ *दीक्षा* [९७ शायक-सम्यक्त्व और यथा ख्यातादि चरित्र भूषणों से भूषित थे, कर्म-शत्रु नाश करने में पूर्ण सावधान थे. स्वकल्याण और परोपकार में आपकी पूरी धगश थी. प्रकाश-परमात्मा महावीर देव का रहन-सहन तो संसार से जुदा था, उनकी आत्मा शान्ति-सन्तोष को चहाने वाली थी इतना ही नहीं किन्तु सतत प्रयास कर उन्हें प्राप्त कर लिया था, आधि-व्याधि और उपाधि से प्रायः मुक्त थे. जन्म-जरा और मृत्यु पर भारी विजय प्राप्त किया था, संयमी के तमाम गुणों का दृढता पूर्वक निवोह करते थे, सदा प्रसन्न वदन रहते थे, दर्शकों के कषाय शान्त हो जाते थे, उन्होंने अपने जीवन में आचार और गुणों का पालन कर संसार को पाठ पढाया, घोषणा की और आदेश दिया है- पाठकवर ! आप अपनी जीवन नन्ज पर उंगुलियाँ रखिए, क्या दशा है ? कितना अन्तर है ? शायद दिग्मूढ की तरह दिशा ही तब्दील होगई है, कोई अच्छा उपदेश या बाँचन मात्र कान तक ही पहुँचता है, हृदयंगम तो होता ही नहीं तो प्रवृत्ति की आशा ही क्या ? यो तो यह पुण्य हीनता का ही परिचायक है; पर भावना और प्रयत्न में तो डबल जीरो (दो विन्दियाँ) लगा हुवा है, अब काम बने कैसे ? जरा अपने प्रवाह से रुको और महावीर के चरणे चलने का निर्णय करो, वर्तन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034546
Book TitleMahavir Jivan Prabha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagar
PublisherAnandsagar Gyanbhandar
Publication Year1943
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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