SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २५ ) वासी आचार्यों की संतान ने उन श्रावको की संतान पर छाप ठोक दी कि तुम हमारे गच्छ के श्रावक हो, हमारे पूर्वजों ने तुम्हारे पूर्वजों,को मांस मदिरा आदि छुड़ा के श्रावक बनाय था, इसीलिए तुम्हारे पूर्वज हमारे मंदिर उपाश्रय की डबल लाग देते आए हैं, अतएव तुम हमारे गच्छ के श्रावक हो। और इस विषय के कई कल्पित लेख बनाकर लिपिबद्ध कर लिए। फिर क्या था श्रावकों के गले में तो उन्होंने पहले ही से अपनायत की जंजीरें डाल दी थीं कि अन्य मन्दिरों से अपने मन्दिर की डबल लाग दो तथा पर्वादि दिनों में उसी उपाश्रय का व्याख्यान सुनो इत्यादि । उपरोक्त इन कारणों से श्रावकों के संस्कार ऐसे सजड़ जम गए कि हम इसी मन्दिर, उपाश्रय और गच्छ के श्रावक हैं । इस प्रकार से एक ही गांव के पृथक् २ दो मंदिरों के अथवा पृथक २ गांवों के मंदिरों के सभासद एक गोत्रीय होते हुए भी मन्दिरों के सभासदत्व के कारण अपनी सरल प्रकृतिवश अन्यान्य गच्छों के उपासी हो गये जो कि आज भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं । किंतु जब कभी संघ निकालने या प्रतिष्ठा करवाने के समय वासक्षेप देने का काम पड़ता तब आपस में गच्छनायकों के वाद-विवाद खड़ा हो जाता, क्योंकि जिस जाति के जो असली प्रतिबोधक आचार्य थे उनकी संतान ही उनको धासक्षेप देने की अधिकारिणी थी। पर जब वे श्रावक अपने गच्छ को भूल कर मन्दिरों के सभासद बनने से अन्य गच्छ के उपासक बन गये तो विवाद होना स्वाभाविक ही था । तथापि उस समय शासन हितचिन्तक श्राचार्य विद्यमान थे और वे इस बात को भी जानते थे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034543
Book TitleMahajan Sangh Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1937
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy