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________________ ૬૦ મહાક્ષત્રપ રાજા રૂદ્રદામા. पं. १५-१६ उत्तम लक्षणों और व्यंजनों से युक्त कान्त मूर्त्तिवाले, अपने आप पाये महा-क्षत्रप नामवाले, राजकन्याओं के स्वयंवरों में अनेक मालायें पानेवाले महाक्षत्रप रुद्रदामाने हजारों बरसों के लिए, गोब्राह्मण... के लिए और धर्म और कीर्ति की वृद्धि के लिए, पौरजानपद जन को कर विष्टि ( बेगार ) प्रणय ( = प्रेम-भेंट के नामसे धनी प्रजा से लिये हुए उपहार ) आदिसे पीडित किये बिना, अपने ही कोशसे बडा धन लगाकर थोडे ही काल में ( पहले से ) तीन गुना दृढतर, लम्बाई, चौड़ाईवाला सेतु बनवा कर सब तरफ.... .. पहले से सुदर्शनतर ( अधिक सुन्दर ) कर दिया । पं. १७ महाक्षत्रप के मति सचिवों ( सलाह देनेवाले मन्त्रिओं) और कर्मसचिवों ( कार्यकारी मन्त्रियों ) की, यद्यपि वे सब अमात्यगुणों से युक्त थे तो भी, दराड के बहुत बड़ा होने के कारण इस विषय में अनुत्साह के कारण सहमति नहीं रही; उनके इसके आरम्भ में विरोध करने पर - पं. १८ फिरसे सेतु बन्धने की आशा न रहने से प्रजा में हाहाकार मच जाने पर, इस अधिष्ठान में पौरजानपदों के अनुग्रह के लिए, समस्त आनर्त और सुराष्ट्र के पालन के लिये, राजा की तरफ से नियुक्त पं. १९ पहलव कुलैप के पुत्र अर्थ, धर्म और व्यवहार को ठीक ठीक देखते हुए ( प्रजा का ) अनुराग बढ़ानेवाले, शक्त, दान्त ( संयमी ), अचपल, अविस्मित ( अनभिमानी ), आर्य नडिग सकने ( रिश्वत न लेने) वाले - अमात्य सुविशाख ने भली प्रकार शासन करते हुए. पं २० अपने भर्ता का धर्म कीर्त्ति और यश बढ़ाते हुए बनवाया । इति । " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034542
Book TitleMahakshatrap Raja Rudradama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages96
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size5 MB
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