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________________ ( ३४ ) है। जिनमें ये गुण नहीं वे कदापि सुपात्र नहीं। उन्हें दान देना धर्मका कारण नहीं हो सकता। सांसारिक कर्त्तव्य भलेहीहो पर सांसारिक लाभालाभसे धार्मिक लाभालाभ विभिन्न है। दान देने में दयाका उल्लंघन न हो इसका भी पूरा ख्याल रखना चाहिये । जिस दानसे दयाका उल्लंघन होता हो वह दान सच्चा दान नहीं है। स्व० दार्शनिक कवि श्रीमद् राजचन्द्रने एक जगह ठीक ही कहा है: सत्य, शीलने, सघलां दान, दया होइ ने रह्यां प्रमाण । दया नहीं तो ए नहीं एक, बिना सूर्य किरण नहीं देख ॥ अतः दयाकी रक्षा करते हुए ही दान देना चाहिए। जिस दानमें जीवोंकी हिंसा रही हुई हो उस दानको न करना चाहिए। इसलिए सजीव धान्यादिका दान करना हिंसाका कार्य होनेसे पाप मूलक है । साधु ऐसे दानको स्वयं ग्रहण नहीं करते और न ऐसे दानकी प्रशंसा या सराहना करते हैं। भगवानने ऐसे सावद्य दानकी जगह जगह निन्दा की है और इसे आत्मघातक बतलाया है। जिस दानसे आत्मिक कल्याण या धर्म, पुण्य होना बतलाया गया है वह दान दूसरा ही है। सच्चे जैन धर्मके रहस्योंको बतला कर किसीको सन्मार्ग पर लाना-उसे सम्यक्तीत-सच्चे दर्शनको मानने वाला, तथा सत् चारित्री बनाना यही धर्म-दान है। सच्चे साधु मुनिराजको उनके तपस्वी जीवनके योग्य शुद्ध कल्प वस्तुओंका दान देना यह भी शुद्ध दान है। ऐसे दानसे नवीन कर्मोंका आना रुकता है, कर्मों की निर्जरा होनेसे धर्म पुण्यका संचार होता है। ऐसा दान सम्पूर्ण निर्वद्य होता है। भगवान खुद ऐसे दानकी श्राज्ञा करते हैं, इसके अतिरिक्त जो साक्द्य दान हैं जिनमें असंयति जीवोंका पोषण होता है या जिनमें असंयति जीवोंकी घात होती है या दूसरे पाप बढ़ते हैं वैसे दान धार्मिक दृष्टिसे सर्वदा प्रकरणीय हैं सांसारिक दृष्टिसे कोई करे तो वह दूसरी बात है। Shree Sudharmaswami Syanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034529
Book TitleJain Shwetambar Terapanthi Sampraday Ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publication Year1945
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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