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________________ ( १३ ) यथा रीति पालन करते हैं वे ही तेरापन्थियोंके बन्दनीय और नमस्य हैं। इस प्रकार मूर्ति पूजा न कर केबल गुण-पूजा करना ही तेरापन्थियोंके सिद्धान्तकी विशेषता है । तेरापन्थी साधु लौकिक और पारलौकिक उपकारमें रात दिनका अन्तर समझते हैं। लौकिक उपकारकी ओर किंचित भी ध्यान न देकर आत्मिक उत्थान द्वारा नैतिक उन्नति और पारलौकिक कल्याण सिद्ध करनेका रास्ता दिखलाते हैं। सांसारिक कार्योंके साथ वे कोई संसर्ग नहीं रखते और न उस सम्बन्धमें कोई उपदेश ही करते हैं । उनके सारे उपदेश धार्मिक होते हैं और केवल धर्म प्रचारके लिये ही उनका जीवन उत्सर्ग रहता है । दीक्षा लेने के बाद से देहावसान तक तेरापंथी साधुत्रोंको निम्नलिखित शात्रोक्त व्रत और नियमों का पालन करना पड़ता है। (क) साधुओं को पांच महाव्रत का पालन करना पड़ता है। ( १ ) प्राणातिपात विरमण व्रत: - इस व्रतके अनुसार साधुको सम्पूर्ण श्रहिंसक बनना पड़ता है । साधु बनने के साथ ही उन्हें यह प्रतिज्ञा या व्रत लेना पड़ता है कि मैं जीवन पर्यन्त सूक्ष्म या बादर, स या स्थावर किसी प्रकारके प्राणीकी हिंसा मन, बचन या कायसे नहीं करूंगा, न कराऊंगा और न करने बालेका अनुमोदन ही करूंगा । और वे केवल प्रतिज्ञा करके ही नहीं रह जाते परन्तु अपने जीवनको इस प्रकार संचालन करते हैं कि जिससे वे इस नियम व व्रतको सम्पूर्ण रूप से पालन कर सकें। गर्मी से गर्मी में भी वे पंखेसे हवा नहीं लेते; ठण्ड से ठण्ड पड़ने पर भी तपनेके लिये आगीका सहारा नहीं लेते, भूखसे प्राण निकलते हों तब भी सचित्त वस्तु नहीं खाते । फूलको नहीं तोड़ते, घाम पर नहीं चलते, सचित्त पानी का स्पर्श नहीं करते, इस प्रकार अपने जीवनको हर प्रकार से संयमी और अहिंसक बनाने के लिए असाधारण त्याग करते हैं। जैन साधु, सच्चे जैन-साधु, अहिं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034529
Book TitleJain Shwetambar Terapanthi Sampraday Ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Sabha
Publication Year1945
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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