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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा । कहलाती है और जो स्त्री पतिव्रता तथा पतिप्राणा होकर सर्वदा खुशी से अपने स्वामी की सेवा करती है वही धर्मभागिनी होती है तथा उसी स्त्री को स्वामी की सेवा करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है क्योंकि-स्त्री का जो कुछ सर्वस्व है वह केवल पति ही है, पति के ही प्रताप से स्त्री अनेक प्रकार का वैभव (ऐश्वर्य) भोग सकती है, पति ही से स्त्री का श्रृंगार शोभा देता है, सौभाग्य रहता है और पति ही से पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है, इस प्रकार अमूल्य और अकथनीय लाभ पहुंचानेवाले पति की निरन्तर प्रीति से सेवा करना, मर्यादा रखकर उस को मान देना और पूज्य मानना तथा उस का अपमान या तिरस्कार नहीं करना, यही स्त्री का प्रधान (मुख्य) कर्त्तव्य है । __ स्त्री को चाहिये कि-जब पति बाहर से घर में आवे उस समय खड़ी होकर आसन और जल आदि देकर उस का सत्कार करे, पति अपने वस्त्र उतार कर सौंपे उन को लेकर अच्छे स्थान में रख देवे और मांगने पर उन (वस्त्रों) को हाज़िर करे, नियमपूर्वक रुचि के अनुसार तथा ऋतु के अनुकूल रसोई बन कर खिलावे, व्यर्थ बातें करके उस के मन को कष्ट न पहुँचावे किन्तु प्रिय मधुर और लाभकारी बातों से उस के मन को प्रसन्न करे, यदि पति किसी कारण से क्रुद्ध (खफा) हो जावे तो धीरज रख कर वचनामृत (वचनरूपी अमृत) से उस के क्रोध को शान्त करे, उस से वाद विवाद कदापि न करे, यदि कभी पति की भूल भी मालूम पड़े तो उस की उस भूल को क्रोध के साथ न कह कर शान्तिपूर्वक युक्ति से समझा कर कहे, व्यर्थ क्रोध कर मनमानी बात मुख से कभी न निकाले, कभी विश्वासघात न करे, क्योंकि विश्वासघात करने से स्त्री की निकृष्ट (खोटी) गति होती है, जिस से पति का मन दुःखित हो ऐसा काम कभी न करे, पति के साथ ऊंचे स्वर से न बोले, विपत्ति पड़ने पर पति को धीरज देवे, तथा दुःख में शामिल होवे, अपनी कोई भूल हो गई हो तो उस को न छिपाकर पति से क्षमा मांगे, सर्वदा पति की आज्ञा से ही सब व्यवहार करे, ईश्वरभक्ति तथा व्यवहारसम्बन्धी सब कार्यों में पति की सहायता करे, अपनी कोई भूल होने पर यदि पति क्रुद्ध हो जाये तो स्त्री को चाहिये कि अपना धर्म समझ के मधुर और विनय के वचनों से इस प्रकार उस के क्रोध को दूर करे, "हे प्राणनाथ ! आप मुझ दासी पर ऐसा क्रोध मत करो, क्योंकि इस दासी से विना जाने यह भूल हो गई है, मैं आप से कर (हाथ ) जोड़ कर इस भूल की क्षमा मांगती हूं और आगामी को (भविष्यत् में) ऐसी भूल कदापि न हो सकेगी, मैं तो आप की आज्ञा उठानेवाली आप की दासी हूं, जो कुछ आप कहोगे वही मैं सच्चे भाव से (शुद्ध हृदय से) करूंगी, क्योंकि हे जीवनाधार ! यह स्वाभाविक (कुदरती) नियम है कि-लड़की अपने मा बाप के घर में पाल पोप कर बड़ी होती है परन्तु उस को अपना सम्पूर्ण जन्म तो पति ही के साथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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