SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय । ६९ मिले, किलै द्रव्य से मान ॥ दुर्लभ पारस जगत में, मिलिवो मित्र सुजान ॥ २४७॥ उपजो उत्तम वंश में, सज्जन व्यर्जन समान ॥ परिभ्रमण करि तुरत ही, मेटि ताप सुखद न ॥ २४८ ॥ हैंय गय अयस सुरत्न की, प्रीक्षक को हि ॥ ि प्रीक्षक जन मन तणां, करि न सकै निरमाण ॥ २४९ ॥ हिकमत कर उदरहि भरउ. किसमत पर रहु नांह ॥ किसमत से हिकमत बड़ी, करि देखो जगमांह ॥ २५० ॥ सुजन मित्र को स्नेह नित, बधै राफ सम वीर || अंजलि जल सम कुजन को, घंटे स्नेहको नीर ॥ २५१ ॥ उत्तम जन अनुरोग तें, चोल मजीठ समान ॥ पामेर रोग पतंग सम, पल में पलटे वन ॥ २५२ ॥ जो जा मैं निसदिन वसै, सो तामै परंवीन ॥ सरितां गजकूं ले चलै, उलट चलत है मीनें ॥ २५३ ॥ थति वैय अन्तरवासना, ज्ञाँति धर्म गुण रूप ॥ जो समान तो मित्रता, अहनिशि निमे अनूप श्री नम्र रहु, , व थी वक्र || अॅक्कड़ थी अक्कड़ रहो, गुणि 26 27 २ २ ॥२५॥ पुरुष दुष्ट जनशी अनवकं ॥ २५५ ॥ देश जाति कुल धर्म को, उर राखे अभिमान ॥ धन्य तेज ना और तो, खैरेज खैर सैम मान ॥ २५६ ॥ पर सुख देखी पर जले, पर दुर्खथीज ॥ नित्य कर्म यह नीचैनूं, माने महाविनोद ॥ २५७ ॥ गुणग्राही सज्जन सदा, दोपग्रीहि छे दुष्ट ॥ पिये खून पय ना पिये, लगी जोंक थन पुष्ट ॥ २५८ ॥ तन मन धन जीवन अरू, परंभ देव प्रिय वस्तु ॥ गिणे सती पति ने सदा, अन्य न ई भ वस्तु ॥ २५९ ॥ शुभतिय से संसार सुख, संगति सुंगुरु से जाण ॥ शुचि मंत्री से राज नित, सुधरे सदा सुजाण ॥ २६० ॥ प्रायः पर की भूल को, देखे सब सार ॥ पणे न विचारे निजर्तणी, होय जु भूल हजार ॥ २६१ ॥ गती विगर अति आकुला, मैतीहीन मगरूरें ॥ रति शत्रू कृति ढँग विणा, ते जन मूर्ख जरूर ॥ २६२ ॥ नन्दजाति नटखटं सदा, पेचीली पर मार ॥ निर्दर्य निपटे संशक नित, स्वार्थसिद्धि करनर ॥ २६३ ॥ गुण विन रूप न काम को, जिम ५२. ६ रोईड़ा १- पुष्किल से मिलने वाला || २- एक प्रकार का पत्थर जिस को छूने से लोहा ६- घोड़ा ॥ ७ हाथी ॥ जाता 11 २-ज्ञानवान् ॥ ४- पंखा ॥ ५-घूमना ॥ ९- परीक्षा करने वाला १०- पहिचान ॥। ११ - तदवीर ॥। १४- न च ॥ १५ - रंग ॥ १६-स्वभाव ।। १७-चतुर ॥ २१ - अवस्था, उम्र ॥ २२ - भीतरी इच्छा २६-नमने वाला || २७ से ॥ २८-टेढ़ा ॥ ॥ २९ ॥ ३४ - गधा स्थिति, हालत । २५- अद्भुत ।। ३१ - दिल || ३२ घमण्ड || ३३ - अत्यन्त ही दुःख से ही ।। वाला ४१ - दोष को लेनेवाला || व्रता स्त्री । ४६ - दूसरा ॥ ४७-प्यारी ॥ ३७ - आनन्द || ३८-नीच का ॥ ४२ - दूध ॥ उत्तम गुरु ॥ ५१ - पवित्र, शुद्ध कुल || ५६ - बुद्धि से रहित ॥ दार ॥ ६१-पेंचवाली ॥ ६२ दया से रहित ॥ ६५ - अपना मतलब || ६६ - करने वाला ॥ ५२-अक्सर ॥ ५७- घमण्डी ॥ १२ खराब आदमी ।। १८- नदी ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ॥ ४३ - उत्तम ४८ - अच्छी स्त्री ॥ २३ - जाति ॥ - अकड़ने वाला ॥ ३९ - बड़ी ५३- परन्तु ॥ ॥ ५८ कार्य ॥ ६३ - अत्यन्त ॥ १९-मछली ॥ ३५- समान ॥ खुशी ॥। ४० गुण को लेने सोना हो ८ - लोहा ॥ ॥। ६७- एक प्रकार का जंगली वृक्ष || १३- प्रेम ॥ २० २४ - दिनरात ॥ ३० - सीधा ॥ ३६- दूसरे के ५४- अपनी ॥ ५९ - आनंदित ।। ६४- शंका के ४४-प्यारी ॥ ४५-पति ४९- अच्छी गति ॥ ५० ५५- व्या ६०-ऐटसहित ॥ www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy