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________________ ७२२ जैनसम्प्रदायशिक्षा। में प्रचरित करने का प्रारम्भ करता है तब लोग पहिले उस का उपहास किया करते हैं, तात्पर्य यह है कि-जब कोई पुरुष (चाहे वह कैसा ही विद्वान क्यों न हो) किन्हीं नये विचारों को (संसार के लिये लाभदायक होने पर भी) प्रकट करता है तब एक वार लोग उस का उपहास अवश्य ही करते हैं तथा उस के उन विचारों को बाललीला समझते हैं, परन्तु विचारप्रकटकर्ता ( विचारों को प्रकट करनेवाला) गम्भीर पुरुष जब लोगों के उपहास का कुछ भी विचार न कर अपने कर्तव्य में सोद्योग ( उद्योगयुक्त) ही रहता है तब उस का परिणाम यह होता है कि-उन विचारों में जो कुछ सत्यता विद्यमान होती है वह शनैः २ (धीरे २) कालान्तर में (कुछ काल के पश्चात् ) प्रचार को प्राप्त होती है अर्थात् उन विचारों की सत्यता और असलियत को लोग समझ कर मानने लगते हैं, विचार करने पर पाठकों को इस के अनेक प्राचीन उदाहरण मिल सकते हैं अतः हम उन (प्राचीन उदाहरणों) का कुछ भी उल्लेख करना नहीं चाहते हैं किन्तु इस विषय के पश्चिमीय विद्वानों के दो एक उदाहरण पाठकों की सेवा में अवश्य उपस्थित करते हैं, देखिये-अठारहवीं शताब्दी (सदी) में मेस्सरे "एनीमल मेगनेतीज़म" (जिस ने अपने ही नाम से अपने आविष्कार का नाम “मेस्मेरिज़म" रक्खा तथा जिस ने अपने आविष्कार की सहायता से अनेक रोगियों को अच्छा किया) का अपने नूतन विचार के प्रकट करने के प्रारम्भ में कैसा उपहास हो चुका है; यहाँ तक कि-विद्वान् डाक्तरों तथा दूसरे लोगों ने भी उस के विचारों को हँसी में उड़ा दिया और इस विद्या को प्रकट करनेवाले डाक्तर मेस्सर को लोग ठग बतलाने लगे परन्तु "सत्यमेव विजयते" इस वाक्य के अनुसार उस ने अपनी सत्यता पर दृढ़ निश्चय रक्खा, जिस का परिणाम यह हुआ कि-उसकी उक्त विद्याकी तरफ कुछ लोगों का ध्यान हुआ तथा उस का आन्दोलन होने लगा, कुछ काल के पश्चात् अमेरिकावालों ने इस विद्या में विशेष अन्वेषण किया जिस से इस विद्या की सारता प्रकट हो गई, फिर क्या था? इस विद्या का खूब ही प्रचार होने लगा और थियासोफिकल सुसाइटी के द्वारा यह विद्या समस्त देशों में प्रचरित हो गई तथा बड़े २ प्रोफेसर विद्वान् जन इस का अभ्यास करने लगे। _दूसरा उदाहरण देखिये-ईस्वी सन १८२८ में सब से प्रथम जब सात पुरुषों ने मद्य ( दारू वा शराब के न पीने का नियम ग्रहण कर मद्य का प्रचार लोगों में कम करने का प्रयत्न करना प्रारंभ किया था उस समय उन का बड़ा ही उपहास हुआ था, विशेषता यह थी कि-उस उपहास में विना विचारे बड़े २ सुयोग्य और नामी शाह भी सम्मीलित (शामिल) हो गये थे, परन्तु इतना उपहास होने पर भी उक्त ( मद्य न पीने का नियम लेनेवाले ) लोगों ने अपने नियम को नहीं छोड़ा तथा उस के लिये चेष्टा करते ही गये, परिणाम यह हुआ किदूसरे भी अनेक जन उन के अनुगामी हो गये, आज उसी का यह कितना बड़ा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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