SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 718
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७०४ जैनसम्प्रदायशिक्षा। दशवाँ प्रकरण। खरोदयवर्णन। — —o0ooooooc स्वरोदय विद्या का ज्ञान । विचार कर देखने से विदित होता है कि-स्वरोदय की विद्या एक बड़ी ही पवित्र तथा आत्मा का कल्याण करनेवाली विद्या है, क्योंकि-इसी के अभ्यास से पूर्वकालीन महानुभाव अपने आत्मा का कल्याण कर अविनाशी पद को प्राप्त हो चुके हैं, देखो! श्री जिनेन्द्र देव और श्री गणधर महाराज इस विद्या के पूर्ण ज्ञाता (जाननेवाले) थे अर्थात् वे इस विद्या के प्राणायाम आदि सब अङ्गों और उपाङ्गों को भले प्रकार से जानते थे, देखिये ! जैनागम में लिखा है कि-"श्री महावीर अरिहन्त के पश्चात् चौदह पूर्व के पाठी श्री भद्रबाहु स्वामी जब हुए थे तथा उन्हों ने सूक्ष्म प्राणायाम के ध्यान का परावर्तन किया था उस समय समस्त सङ्घ ने मिल कर उन को विज्ञप्ति की थी" इत्यादि । इतिहासों के अवलोकन से विदित होता है कि-जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि जी तथा दादा साहिब श्री जिनदत्त सूरि जी आदि अनेक जैनाचार्य इस विद्या के पूरे अभ्यासी थे, इस के अतिरिक्त-थोड़ी शताब्दी के पूर्व आनन्दघन जी महाराज, चिदानन्द ( कपूरचन्द )जी महाराज तथा ज्ञानसार (नारायण) जी महाराज आदि बड़े २ अध्यात्म पुरुष हो गये हैं जिन के बनाये हुए ग्रन्थों के देखने से विदित होता है कि-आत्मा के कल्याण के लिये पूर्व काल में साधु लोग योगाभ्यास का खूब वर्ताव करते थे, परन्तु अब तो कई कारणों से वह व्यवहार नहीं देखा जाता है, क्योंकि-प्रथम तो-अनेक कारणों से शरीर की शक्ति कम हो गई है, दूसरे-धर्म तथा श्रद्धा घटने लगी है, तीसरे-साधु लोग पुस्तकादि परिग्रह के इकट्ठे करने में और अपनी मानमहिमा में ही साधुत्व (साधुपन) समझने लगे हैं, चौथे-लोभ ने भी कुछ २ उन पर अपना पञ्जा फैला दिया है, कहिये अब स्वरोदयज्ञान का झगड़ा किसे अच्छा लगे? क्योंकि यह कार्य तो लोभरहित तथा आत्मज्ञानियों का है किन्तु यह कह देने में भी अत्युक्ति न होगी कि मुनियों के आत्मकल्याण का मुख्य मार्ग यही है, अब यह दूसरी बात है कि-वे (मुनि) अपने आत्मकल्याण का मार्ग छोड़ कर अज्ञान सांसारिक जनों पर अपने अपने ढोंग के द्वारा ही अपने साधुत्व को प्रकट करें। प्राणायाम योग की दश भूमि है, जिन में से पहिली भूमि (मञ्जल) १-योगाभ्यास का विशेष वर्णन देखना हो तो 'विवेकमार्तण्ड' 'योगरहस्य' तथा 'योगशास्त्र' आदि ग्रन्थों को देखना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy