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________________ द्वितीय अध्याय । दूसरा प्रकरण । सुभाषित रत्नावलि के दोहे | १५ उत्तम मध्यम अधम की, पाहेन सिकेता तोये ॥ प्रीति अनुक्रम जानिये, वैर व्यतिक्रम होय ॥ १ ॥ रागी औगुण ना गिनै, यही जगत की चाल ॥ देखो सब ही श्याम को, कहत बाल सब लाल ॥ २ ॥ जो जाको गुन जानही, सो तिहि आदर देत || कोकिल अबहि लेत है, काम निबोली लेत || ३ || हलन चलन की शक्ति है, तब लौं उद्यम ठान || अजगर ज्यों मृगपतिवदन, मृग न परत है आन ॥ ४ ॥ जाही तें कछु पाइये, करिये ताकी आस || रीते संरवर पै गये, कैसे बुझ पियास || ५ || देवो अवसर को भलो, जासो सुधरै काम || खेती सूखे बरस्वो वन को कौने काम || ६ || अपनी पहुँच विचारि के करतब करिये दौड़ ॥ ते ते पाँव पसारिये, जेती लांबी सौड़े ॥ ७ ॥ कैसे निबल है निबल जन, कारे नबलन सो गैरे' ॥ जैसे बसि सागर विषै, करत मगर सों वैर ॥८॥ पिशुनं छल्यो नर सुजन सों, करत विसास न चूक | जैसे दध्यो दूध को, पियत छाछ को क ॥ ९ ॥ प्राण नृपोतुर के रहें, थोड़े हूँ जलपान ॥ पीछे जल भर सहस घट, डारे मिलत न प्रान ॥ १० ॥ विद्याधन उद्यम विना, कहो जु पावै कौन ॥ विना डुलाये ना मिले, ज्यों पंखे की पौन ॥ ११ ॥ बनती देखि बनाइये, परत न दीजं पीठ ॥ जैसी चलै बयार तब, तैसी दीजै पीठ ॥ १२ ॥ ओछे नर की प्रीति की, दोन्ही रीति बताय ॥ जैसे छीर ताल जल, घटत घटत घटि जाय ॥ १३॥ अन मिलती जोई करत, ताही को उपहास ॥ जैसे जोगी जोग में, करत भोग की आस ॥ १४ ॥ बुरे लगत सिख के वचन, मनमें सोचहु आप ॥ कदुई औषध विन पिये, मिटत न तन को ताप ॥ १५ ॥ रहे समीप बड़ेन के, होत बड़ो हित मेल || सब ही जानत बढ़त है, वृक्ष बराबर बेल ॥ १६ ॥ उपकारी उपकार जग, सब वो करत प्रकास || ज्यों केंदु मधुरे तर मलेये, करत सुवासहि जास ॥ १७ ॥ करिये सुख को होत दुख, यह कहु कौन सयान ॥ वा सोने को जारिये, जासों टूटे खान ॥ १८ ॥ नयना देत वताय सब, हियँ को हेत अहेत ॥ ज्यों नाई की आरमी, भली बुरी कहि देत ॥ १९ ॥ फेर न व्है है कपट सों, जो कीजै व्यपार ॥ जैसे हांड़ी काठ की, चंदै न दूजी वार ॥ २० ॥ सुखदायी जो देत दुख, सो सब २- रेत, बालू ॥ ३-जल ॥ ४-कमसे ॥ ५ उलटा ॥ ८-तालाब ॥ १- पत्थर ॥ केमु में ॥ गुलवार, निन्दक ॥। ९-मेघ ॥ || १३ - जला हुआ १७ - हँसी, ठठ्ठा ॥ १६- म गहिरा ॥ २०- नलाई करनेवाला || २१- भलाई राई | २६ - हृदय || ॥ २७ - भलाई || १० - लिहाफ वा रजाई १४-प्यास से व्याकुल || ॥। १८ - शिक्षा, नसीहत ॥ २२- कडुआ ॥ २३ - वृक्ष २८ - बुराई ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ५७ ६ - आमको ॥ ७-सिंह ११ - विरोध ॥ १२ - चु १५ सहस्र अर्थात् हजार ॥ १९ - दुःख, ज्वर की पीड़ा || २४ - चन्दन ॥ २५ चतु www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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