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________________ पञ्चम अध्याय । ६८५ प्राचीन शास्त्रकारों ने राजभक्ति को भी एक अपूर्व गुण माना है, जिस मनुष्य में यह गुण विद्यमान होता है वह अपनी सांसारिक जीवनयात्रा को सुख से व्यतीत कर सकता है । राजभक्ति के दो भेद हैं-प्रथम भेद तो वही है जो अभी लिख चुके हैं अर्थात् राजा के नियत किये हुए नियमों के अनुसार वर्ताव करना, दूसरा भेद यह है कि- समयानुसार आवश्यकता पड़ने पर यथाशक्ति तन मन धन से राजा की सहायता करना । देखो ! इतिहासों से विदित है कि पूर्व समय में जिन लोगों ने इस सर्वोत्तम गुण राजभक्ति के दोनों भेदों का यथावत् परिपालन किया है उन की सांसारिक जीवनयात्रा किस प्रकार सुख से व्यतीत हो चुकी है और राज्य की ओर से उन्हें इस सद्गुण का परिपालन करने के हेतु कैसे २ उत्तम अधिकार जागीरें तथा उपाधियाँ प्राप्त होचुकी हैं । राजभक्ति का यथोचित पालन न कर यदि कोई पुरुष चाहे कि मैं अपनी जीवनयात्रा को सुख से व्यतीत करूँ तो उस की यह बात ऐसी असम्भव है जैसे कि पश्चिमी देश को प्राप्त होने की इच्छा से पूर्व दिशा की ओर गमन करना । जिस प्रकार एक कुटुम्ब के बाल बच्चे आदि सर्व जन अपने कुटुम्ब के अधिपति की नियत की हुई प्रणाली पर चल कर अपने जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करते हैं तथा उस कुटुम्ब में सर्वदा सुख और शान्ति का निवास बना रहता है, ठीक उसी प्रकार राजा के नियत किये हुए नियमों के अनुसार वर्ताव करने से समस्त प्रजाजन अपने जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत कर सकते हैं, तथा उन में सर्वदा सुख और शान्ति का निवास रह सकता है, इस के विरुद्ध जब प्रजा - जन राजनियमों का उल्लङ्घन कर स्वेच्छापूर्वक ( अपनी मर्जी के अनुसार अर्थात् मनमाना ) वर्ताव करते वा करने लगते हैं तब उन को एक ऐसे कुटुम्ब के समान कि जिस में सब ही किसी एक को प्रधान न मान कर और उस की आज्ञा का अनुसरण न कर स्वतन्त्रतापूर्वक वर्ताव करते हों तथा कोई किसी को आधीनता की न चाहता हो, उसे चारों ओर से दुःख और आपत्तियाँ घेर लेती हैं', जिस का अन्तिम परिणाम ( आखिरी नतीजा ) और कुछ भी नहीं होता है । विनाश के सिवाय भला सोचने की बात है कि - जिस राज्य में हम सुख और शान्तिपूर्वक निर्भय होकर अपनी जीवनयात्रा को व्यतीत कर रहे हों उस राज्य के नियत किये हुए १-यदि इस के उदाहरणों के जानने की इच्छा हो तो इतिहासवेत्ताओं से पूछिये ॥ ५८ जै० सं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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