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________________ पञ्चम अध्याय । ६७९ इसीका मिश्रण होता है, प्रचलित विचारों में बिलकुल सत्य ही विषय हो और नये विचारों में बिलकुल असत्य ही विषय हो ऐसा मान लेना सर्वथा भ्रमास्पद है, क्योंकि उक्त दोनों विचारों में न्यूनाधिक अंश में सत्य रहा करता है। देखो ! बहुत से लोग तो यह कहते हैं कि-जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस पाँच वर्ष से हो रही है और उस में लाखों रुपये खर्च हो चुके हैं और उस के सम्बन्ध में अब भी बहुत कुछ खर्च हो रहा है परन्तु कुछ भी परिणाम नहीं निकला, बहुत से लोग यह कहते हैं कि-जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस के होने से जैन धर्म की बहुत उन्नति हुई है, अब उक्त दोनों विचारों में सत्य का अंश किस विचार में अधिक है इस का निर्णय बुद्धिमान् और विद्वान् जन कर सकते हैं। यह तो निश्चय ही है कि गणित तथा यूकलिड के विषय के सिवाय दूसरे किसी विषय में निर्विवाद सिद्धान्त स्थापित नहीं हो सकता है, देखो ! गणित विषयक सिद्धान्त में यह सर्वमत है कि-पाँच में दो के मिलाने से सात ही होते हैं, पाँच को चार से गुणा करने पर बीस ही होते हैं, यह सिद्धान्त ऐसा है कि इस को उलटने में ब्रह्मा भी असमर्थ है परन्तु इस प्रकार का निश्चित सिद्धान्त राज्यनीति तथा धर्म आदि विवादास्पद विषयों में माननीय हो, यह बात अति कठिन तथा असम्भववत् है, क्योंकि-मनुष्यों की प्रकृतियों में भेद होने से सम्मति में भेद होना एक स्वाभाविक बात है, इसी तत्त्व का विचार कर हमारे शास्त्रकारों ने स्याद्वाद का विषय स्थापित किया है और भिन्न २ नयों के रहस्यों को समझा कर एकान्तवाद का निरसन (खण्डन ) किया है, इसी नियम के अनुसार विना किसी पक्षपात के हम यह कह सकते हैं कि-जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस को श्रीमान् श्री गुलाबचन्द जी ढड्ढा एम्. ए. ने अकथनीय परिश्रम कर प्रथम फलोधी तीर्थ में स्थापित किया था, इस सभा के स्थापित करने से उक्त महोदय का अभीष्ट केवल जात्युन्नति, देशोन्नति, विद्यावृद्धि, एकताप्रचार धर्मवृद्धि, परस्पर सहानुभूति तथा कुरीतिनिवारण आदि ही था, अब यह दूसरी बात है कि-सम्मतियों के विभिन्न होने से सभा के सत्पथ पर किसी प्रकार का अवरोध होने से सभा के उद्देश्य अब तक पूर्ण न हुए हों वा कम हुए हों, परन्तु यह विषय सभा को दोषास्पद बनानेवाला नहीं हो सकता है, पाठकगण समझ सकते हैं कि-सदुद्देश्य से सभा को स्थापित करनेवाला तो सर्वथा ही आदरणीय होता है इस लिये उक्त सच्चे वीर पुत्र को यदि सहस्रों धन्यवाद दिये जावें तो भी कम हैं, परन्तु बुद्धिमान् समझ सकते हैं कि-ऐसे बृहत् कार्य में अकेला पुरुष चाहे वह कैसा ही उत्साही और वीर क्यों न हो क्या कर सकता है ? अर्थात् उसे दूसरों का आश्रय ढूँढ़ना ही पड़ता है, बस इसी नियम के अनुसार वह बालिका सभा कतिपय मिथ्याभिमानी पुरुषों को रक्षा के उद्देश्य से सौंपी गई अर्थात् प्रथम कान्फ्रेंस फलोधी में हो कर दूसरी बम्बई में हुई, उस के कार्यवाहक प्रायः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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