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________________ ६६४ जैनसम्प्रदायशिक्षा । चौथा प्रकरण। माहेश्वरी वंशोत्पत्ति वर्णन । माहेश्वरी वंशोत्पत्ति का संक्षिप्त इतिहास । बँडेला नगर में सूर्यवंशी चौहान जाति का राजा खड़गलसेन राज्य करता था, उस के कोई पुत्र नहीं था इस लिये राजा के सहित सम्पूर्ण राजधानी चिन्ता में निमग्न थी, किसी समय राजा ने ब्राह्मणों को अति आदर के साथ अपने यहाँ बुलाया तथा अत्यन्त प्रीति के साथ उन को बहुत सा द्रव्य प्रदान किया, तब ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर राजा को वर दिया कि-"हे राजन् ! तेरा मनोवांछित सिद्ध होगा" राजा बोला कि-"हे महाराज! मुझे तो केवल एक पुत्र की वान्छा है" तब ब्राह्मणों ने कहा कि-"हे राजन् ! तू शिवशक्ति की सेवा कर ऐसा करने से शिव जी के वर और हमलोगों के आशीर्वाद से तेरे बड़ा बुद्धिमान और बलवान् पुत्र होगा, परन्तु वह सोलह वर्ष तक उत्तर दिशा को न जावे, सूर्यकुण्ड में स्नान न करे और ब्राह्मणों से द्वेष न करे तो वह साम्राज्य (चक्रवर्तिराज्य) का भोग करेगा, अन्यथा (नहीं तो) इसी देह से पुनर्जन्म को प्राप्त हो जावेगा" उन के वचन को सुन कर राजा ने उन्हें वचन दिया (प्रतिज्ञा की) कि-"हे महाराज! आप के कथनानुसार वह सोलह वर्ष तक न तो उत्तर दिशा को पैर देगा, न सूर्यकुण्ड में स्नान करेगा और न ब्राह्मणों से द्वेष करेगा" राजा के इस वचन को सुन कर ब्राह्मणों ने पुण्याहवाचन-को पढ़ कर आशीर्वाद देकर अक्षत (चावल) दिया और राजा ने उन्हें द्रव्य तथा पृथ्वी देकर धनपूरित करके विदा किबा, ब्राह्मण भी अति तुष्ट होकर वर को देते हुए विदा हुये, उन के विदा के समय राजा ने पुनः प्रार्थना कर कहा कि-"हे महाराज! आप का वर मुझे सिद्ध हो" सर्व भूदेव (ब्राह्मण) भी 'तथास्तु' कह कर अपने २ स्थान को गये, राजा के २४ रानियां थीं, उन में से चाँपावती रानी के गर्भाधान होकर राजा के पुत्र उत्पन्न हुभा, पुत्र का जन्म सुनते ही चारों तरफ से बधाइयाँ आने लगी, नामस्थापन के समय उस का नाम सुजन कुँवर रक्खा गया, बुद्धिके तीक्ष्ण होने से वह बारह बर्ष की अवस्था में ही घोड़े की सवारी और शस्त्रविद्या आदि चौदह विद्याओं को पढ़ कर उन में प्रवीण हो गया, हृदय में भक्ति और श्रद्धा के होने से वह ब्राह्मणों और याचकों को नाना प्रकार के दान और मनोवांच्छित दक्षिणा आदि देने लगा, उस के सयवहार को देख कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ, किसी समय १-यह माहेश्वरी वैश्यों की उत्पत्ति का इतिहास खास उन के भाटों के पास जो लिखा हुआ है उसी के अनुसार हम ने लिखा है, यह इतिहास माटों का बनाया हुआ है अथवा वास्तविकरूप ( जो कुछ हुआ था उसी का वर्णनरूप) है, इस बात का विचार लेख को देख कर बुद्धिमान् स्वयं ही कर सकेंगे, हम ने तो उक्त वैश्यों की उत्पत्ति कैसे मानी जाती है इस बात का सब को ज्ञान होने के लिये इस विषय का वर्णन कर दिया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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