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________________ पञ्चम अध्याय । ६६१ तो तुझे भवान्तर ( परलोक ) में विदित होगी अर्थात् भवान्तर में तू बहुत दुःख पावेगा, क्योंकि - जीवहिंसा का फल केवल दुर्गति ही है", मुनि के इस वचन को सुन कर राजा ने अपने किये हुए पाप का पश्चात्ताप किया तथा मुनि से सत्य धर्म को पूछा, तब दिगम्बराचार्य बोले कि - "हे राजन् ! जहाँ पाप है वहाँ धर्म कहाँ से हो सकता है ? देख ! जैसा तुझे अपना जीव प्यारा है वैसा ही सब जीवों को भी अपना २ जीव प्यारा है, इस लिये अपने जीव के समान सब के जीव को प्रिय समझना चाहिये, पञ्च महाव्रतरूप यतिधर्म तथा सम्यक्त्वसहित बारह व्रतरूप गृहस्थधर्म ही इस भव और पर भव में सुखदायक है, इस लिये यदि तुझे रुचे तो उस ( दयामय जैन धर्म ) का अङ्गीकार कर और सुपात्रों तथा दीन दुःखियों को दान दे, सत्य वचन को बोल, परनिन्दा तथा विकथा को छोड़ और जिनराज की द्रव्य तथा भाव से पूजा कर", आचार्य के मुख से इस उपदेश को सुन कर राजा जिनधर्म के मर्म को समझ गया और उस ने शीघ्र ही जिनराज की शान्तिक पूजा करवाई, जिस से शीघ्र ही उपद्रव शान्त हो गया, बस राजा ने उसी समय चौरासी गोत्र सहित ( ८३ उमराव और एक आप खुद इस प्रकार ८४ ) जैन धर्म का अङ्गीकार किया, ऊपर कहे हुए ८४ गाँवों में से ८२ गाँव राजपूतों के थे और दो गाँव सोनारों के थे, ये ही लोग चौरासी गोत्रवाले सिरावगी कहलाये, यह भी स्मरण रहे कि इन के गाँवों के नाम से ही इन के गोत्र स्थापित किये गये थे, इन में से राजा का गोत्र साह नियत हुआ था और बाकी के गोत्रों का नाम पृथक् २ रक्खा गया था जिन सब का वर्णन क्रमानुसार निम्नलिखित है: : राजपूत वंश चौहान तंवर चौहान राठौड़ सोम चौहान गांव खँडेलो पाढणी पापड़ी दौसा जमाय सं० गोत्र १ साह २ पाटणी ३ पापड़ीवाल ४ दौसा ५ सेठी ६ भौसा ७ गौधा ८ चाँदूवाड़ ९ मोठ्या १० अजमेरा सेठाणियो चक्रेश्वरी नांदणी DI भौसाणी गौधाणी मातणी चंदूवाड़ मातणी चंदेला ठीमर गौड़ औरल अजमेर्यो नदी ११ दरौद्य चक्रेश्वरी चौहान चौहान दरड़ौद गदयौ १२ गइया १३ पाहाड्या पाहाड़ी चौहान सूर्यवंशी चक्रेश्वरी चक्रेश्वरी आमण १४ भूँच १५ वज १६ वज्जमहाराया ५६ जै० सं० हेम हेम वजाणी वजमासी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat कुलदेवी चक्रेश्वरी भामा चक्रेश्वरी आमण मौहणी www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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