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________________ पञ्चम अध्याय । ६२७ साहिबजैनाचार्य श्री जिनकुशल सूरि जी महाराज का नन्दी ( पाट ) महोत्सबं पाटन नगर में किया तथा उक्त महाराज को साथ में लेकर शेत्रुञ्जय का संघ निकाला और बहुत सा द्रव्य शुभ मार्ग में लगाया, पीछे सब संघ ने मिल कर माला पहना कर तेजपाल को संघपति का पद दिया, तेजपाल ने भी सोने की एक मोहर, एक थाली और पाँच सेर का एक लड्डू प्रतिगृह में लावण बाँटा, इस प्रकार यह अनेक शुभ कार्यों को करता रहा और अन्त में अपने पुत्र वील्हा जी को घर का भार सौंप कर अनशन कर स्वर्ग को प्राप्त हुआ, तात्पर्य यह है कि तेजपाल की मृत्यु के पश्चात् उस के पाट पर उस का पुत्र वील्हा जी बैठा । वील्हा जी के कडूवा और धरण नामक दो पुत्र हुए, वील्हा जी ने भी अपने पिता ( तेजपाल ) के समान अनेक धर्मकृत्य किये । वील्हा जी की मृत्यु के पश्चात् उन के पाट पर उन का बड़ा पुत्र कडूवा बैठा, इस का नाम तो अलवत्ता कडूवा था परन्तु वास्तव में यह परिणाम में अमृत के समान मीठा निकला । किसी समय का प्रसंग है कि यह मेवाड़देशस्थ चित्तौड़गढ़ को देखने के लिये गया, उस का आगमन सुन कर चित्तौड़ के राना जी ने उस का बहुत सम्मान किया, थोड़े दिनों के बाद माँडवगढ़ का बादशाह किसी कारण से फौज लेकर चित्तौड़गढ़ पर चढ़ आया, इस बात को जान कर सब लोग अत्यन्त व्याकुल: होने लगे, उस समय राना जी ने कडूवा जी से कहा कि- “पहिले भी तुम्हारे पुरुषाओं ने हमारे पुरुषाओं के अनेक बड़े २ काम सुधारे हैं इस लिये अपने पूर्वजों का अनुकरण कर आप भी इस समय हमारे इस काम को सुधारो" यह सुन कर कडूवा जी ने बादशाह के पास जा कर अपनी बुद्धिमत्ता से उसे समझा कर परस्पर में मेल करा दिया और बादशाहकी सेना को वापिस लौटा दिया, इस बात से नगरवासी जन बहुत प्रसन्न हुए और राना जी ने भी अत्यन्त १ - इन का जन्म छाजेड़ गोत्र में विक्रमसंवत् १३३० में हुआ, संवत् १३४७ में दीक्षा हुई तथा संवत् १३७७ में ये पाटन में सूरिषद पर विराजे, ये भी जैनाचार्य बड़े प्रतापी हो गये हैं, इन्हों ने अनेक सङ्घ को उपकार किया है, संवत् १३८९ में फागुन वदि ३० ( अमावास्या) के दिन ये देराउर नगर में आठ दिनों तक अनशन कर स्वर्ग को प्राप्त हुए थे, इन्हों ने स्वर्गप्राप्ति के बाद भी अपने अनेक भक्तों को दर्शन दिया तथा, अब भी ये भक्तजनों के हाजराहजूर ( काम पड़ने पर शीघ्र ही उपस्थित होकर सहायता देने वाले ) हैं, इन के चरण प्रायः सब नगरों में दादाजी के नाम से मन्दिरों तथा बगीचों में विराजमान हैं तथा प्रति सोमवार तथा पूर्णमासी को लोग उन का दर्शन करने के लिये जाते हैं ॥ २-शेत्रुञ्जय पर आचार्य महाराज ने मानतुंग नामक खरतर वसी के मन्दिर में सत्ताईस अंगुल के परिमाण में श्री आदिनाथ बिम्ब की प्रतिष्ठा की थी ॥ ३- श्री शेत्रुञ्जय गिरनार का संघ निकाला तथा मार्ग में एक मोहर, एक थाल और पाँच सेर का एक मगदिया लड्डू, इन लावण प्रतिगृह में साधर्मी भाइयों को बाँटी तथा सात क्षेत्रों में भी बहुत सा द्रव्य लगाया ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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