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________________ ६२० जैनसम्प्रदायशिक्षा। राखेचाह गोत्रवालों में से कुछ लोग पूगल से उठ कर अन्यत्र जाकर बसे तथा उन को लोग पूगलिया कहने लगे, बस तब से ही वे पूगलिया कहलाये। तेरहवी संख्या-लूणिया गोत्र । सिन्ध देश के मुलतान नगर में मुंधड़ा जाति का महेश्वरी हाथीशाह राजा का देश दीवान था, हाथीशाह ने राज्य का प्रबंध अच्छा किया तथा प्रजा के साथ नीति के अनुसार वर्ताव किया, इस लिये राजा और प्रजा उस पर बहुत खुश हुए, कुछ समय के बाद हाथीशाह के पुत्र उत्पन्न हुआ और उस ने दसोटन का उत्सव बड़ी धूमधाम से किया तथा पुत्र का नाम नक्षत्र के अनुसार लूणा रक्खा, जब वह पाँच वर्ष का हो गया तब दीवान ने उस को विद्या का पढ़ाना प्रारंभ किया, बुद्धि के तीक्ष्ण होने से लूणा ने विद्या तथा कलाकुशलता में अच्छी निपुणता प्राप्त की, जब लूणा की अवस्था बीस वर्ष की हुई तब दीवान हाथीशाह ने उस का विवाह बड़ी धूमधाम से किया, एक दिन का प्रसंग है कि-रात्रि के समय लूणा और उस की स्त्री पलँग पर सो रहे थे कि इतने में दैववश सोते हुए ही लूणा को साँप ने काट खाया, इस बात की खबर लूणा के पिता को प्रातःकाल हुई, तब उस ने झाड़ा झपटा और ओषधि आदि बहुत से उपाय करवाये परन्तु कुछ भी फायदा नहीं हुआ, विष के वेग से लूणा बेहोश हो गया तथा इस समाचार को पाकर नगर में चारों ओर हाहाकार मच गया, सब उपायों के निष्फल होने से दीवान भी निराश हो गया अर्थात् उस ने पुत्र के जीवन की आशा छोड़ दी तथा लूणा की स्त्री सती होने को तैयार हो गई, उसी दिन अर्थात् विक्रमसंवत् ११९२ ( एक हजार एक सौ बानवे) के अक्षयतृतीया के दिन युगप्रधान जैना. चार्य श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज विहार करते हुए वहाँ पधारे, उन का आगमन सुन कर दीवान हाथीशाह आचार्य महाराज के पास गया और नमन वन्दन आदि करके अपने पुत्र का सब वृत्तान्त कह सुनाया तथा यह भी कहा कि-"यदि मेरा जीवनाधार कुलदीपक प्यारा पुत्र जीवित हो जावे तो मैं लाखों रुपयों की जवाहिरात आप को भेंट करूँगा और आप जो कुछ आज्ञा प्रदान करेंगे वही मैं स्वीकार करूँगा" उस के इस वचन को सुन कर आचार्य महाराज ने कहा कि-"हम त्यागी हैं, इस लिये द्रव्य लेकर हम क्या करेंगे, हाँ यदि तुम अपने कुटुम्ब के सहित दयामूल धर्म का ग्रहण करो तो तुम्हारा पुत्र जीवित हो सकता है" जब १-एक जगह इस का नाम धींगड़मल लिखा हुआ देखने में आया है तथा दो चार वृद्धों से हम ने यह भी सुना है कि मुंधड़ा जाति के महेश्वरी धींगड़मल और हाथीशाह दो भाई थे, उन में से हाथीशाह ने पुत्र को सर्प के काटने के समय में श्री जिनदत्त जी सूरि के कथन से दयामूल धर्म का ग्रहण किया था, इत्यादि, इस के सिवाय लूणिया गोत्र की तीन वंशावलियाँ भी हमारे देखने में आई जिन में प्रायः लेख तुल्य है अर्थात् तीनों का लेख परस्पर में ठीक मिलता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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