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________________ पञ्चम अध्याय । ६१५. चतुराई से ले ली थी, उसी ऍडुरी के प्रभाव से थिरुसाह के पास बहुत सा द्रव्य हो गया था, इस के पश्चात् थिरुसाह ने लोद्रवपुर पट्टन में सहस्रफण पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया, फिर ज्ञान भण्डार स्थापित किया इत्यादि, तात्पर्य यह है कि उस ने सात क्षेत्रों में बहुत सा द्रव्य खर्च किया, भण्डशाली गोत्र वाले लोग लोद्रवपुर पट्टन से उठ कर और २ देशों में जा बसे, ये ही भण्डशाली जैसलमेर में काछवा कहलाते हैं । एक भण्डशाली जोधपुर में आकर रहा और राज्य की तरफ से उसे काम मिला अतः वह राज्य का काम करने लगा, इस के बाद उस की औलाद वाले लोग महाजनी पेशा करने लगे, जोधपुर नरग में कुल ओसवालों के चौधरी ये ही हैं, अर्थात् न्यात ( जाति ) सम्बन्धी काम इन की सम्मति के बिना नहीं होता है, ये लड़के के शिर पर नौ वर्ष तक चोटी को नहीं रखते हैं, पीछे रखते हैं, इन में जो वोरी दासोत कहलाते हैं वे ब्राह्मणों को और हिजड़ों को व्याह में नहीं बुलाते हैं, जोधपुर में भोजकों (सेवकों) से विवाह करवाते हैं । एक भण्डशाली बीकानेर की रियासत में देशनोक गाँव में जा बसा था वह देखने में अत्यन्त भूरा था, इस लिये गांववाले सब लोग उस को भूरा २ कह कर पुकारने लगे, इस लिये उस की औलादवाले लोग भी भूरा कहलाने लगे । ये सब ( ऊपर कहे हुए ) राय भण्डशाली कहलाते हैं, किन्तु जो खड भणशाली कहलाते हैं वे जाति के सोलंखी राजपूत थे, इस के सिवाय खडभणशालियों का विशेष वर्णन नहीं प्राप्त हुआ || । आठवी संख्या - आयरिया, लूणावत गोत्र । सिन्ध देश में एक हजार ग्रामों के भाटी राजपूत राजा अभय सिंह को विक्रम संवत् ११७५ ( एक हजार एक सौ पचहत्तर) में युगप्रधान जैनाचार्य श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज ने प्रतिबोध देकर महाजन वंश और आयरिया गोत्रस्थापित किया, इस की औलाद में लूणे नामक एक बुद्धिमान् तथा भाग्यशाली पुरुष हुआ, उस की औलादवाले लोग लूणावत कहलाने लगे, लूणे ने सिद्धाचल जी का संघ निकाला और लाखों रुपये धर्मकार्य में खर्च किये, कोलू ग्राम में काबेली खोड़ियार चारणी नामक हरखू ने लूणे को बर दिया था इस लिये लूणावत लोग खोड़ियार हरखू को पूजते हैं, ये लोग बहुत पीढ़ियों तक बहलवे ग्रामः में रहते रहे, पीछे जैसलमेर में इन की जाति का बिस्तार होकर मारवाड़ में हुआ ॥ १ - इस ने एक जिनालय आगरे में भी बनवाया था जो कि अब तक मौजूद है || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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