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________________ पञ्चम अध्याय। ६०५ उस समय श्रीरत्नप्रभ सूरि महाराज ने ऊपर कहे हुए राजपूतों की शाखाओं का माहाजन वंश और अठारह गोत्र स्थापित किये थे जो कि निम्नलिखित हैं:१-तातहड़ गोत्र । २-बाफणा गोत्र । ३-कर्णाट गोत्र। ४-बलहरा गोत्र । ५-मोराक्ष गोत्र । ६-कूलहट गोत्र । ७-रबिहट गोत्र । ८-श्रीश्रीमाल गोत्र । ९-श्रेष्ठिगोत्र । १०-सुचिंती गोत्र । ११-आईचणांग गोत्र । १२-भूरि (भटेवरा) गोत्र । १३-भाद्रगोत्र । १४-चीचट गोत्र। १५-कुंभट गोत्र । १६-डिंडू गोत्र । १७-कनोज गोत्र । १८-लघुश्रेष्ठि गोत्र । इस प्रकार ओसिया नगरी में माहाजन वंश और उक्त १८ गोत्रों का स्थापन कर श्री सूरि जी महाराज विहार कर गये और इस के पश्चात् दश वर्ष के पीछे पुनः लक्खीजङ्गल नामक नगर में सूरि जी महाराज विहार करते हुए पधारे और उन्हों ने राजपूतों के दश हजार घरों को प्रतिबोध देकर उन का माहाजन वंश और सुघड़ादि बहुत से गोत्र स्थापित किये। प्रिय वाचक वृन्द ! इस प्रकार ऊपर लिखे अनुसार सब से प्रथम माहाजन वंश की स्थापना जैनाचार्य श्री रत्नप्रभसूरि जी महाराज ने की, उस के पीछे विक्रम संवत् सोलह सौ तक बहुत से जैनाचार्यों ने राजपूत, महेश्वरी वैश्य और ब्राह्मण जातिवालों को प्रतिबोध देकर (अर्थात् ऊपर कहे हुए माहाजन वंश का विस्तार कर ) उन के माहाजन वंश और अनेक गोत्रों का स्थापन किया है जिस का प्रामाणिक इतिहास अत्यन्त खोज करने पर जो कुछ हम को प्राप्त हुआ है उस को हम सब के जानने के लिये लिखते हैं। प्रथम संख्या-संचेती (सचंती) गोत्र ।। विक्रम संवत् १०२६ ( एक हज़ार छब्बीस ) में जैनाचार्य श्री वर्धमानसूरि जी महाराज ने सोनीगरा चौहान बोहित्थ कुमार को प्रतिबोध देकर उस का माहाजन वंश और संचेती गोत्र स्थापित किया। अजमेर निवासी संचेती गोत्र भूषण सेठ श्री वृद्धिचन्द्रजी ने खरतरगच्छीय उपाध्याय श्री रामचन्द्र जी गणी ( जो कि लश्कर में बड़े नामी विद्वान् और पद शास्त्र के ज्ञाता हो गये हैं) महाराज से भगवतीसूत्र सुना और तदनन्तर शेत्रुञ्जय का सङ्घ निकाला, कुछ समय के बाद शेत्रुञ्जय गिरनार और आबू आदि की यात्रा करते हुए मरुस्थलदेशस्थ (मारवाड़देश में स्थित ) फलोधी पार्श्वनाथ नामक १-तदा त्रयोदश सुरत्राण छत्रोद्दालक चन्द्रावती नगरीस्थापक पोरवाड़ ज्ञातीय श्री विमल मत्रिणा श्री अर्बुदाचले ऋषभदेवप्रासादः कारितः। ............तत्राद्यापि विमल वसही इति प्रसिद्धिरस्ति । ततः श्रीवर्धमानसूरिः संवत् १०८८ मध्ये प्रतिष्ठां कृत्वा प्रान्तेऽनशनं गृहीत्वा स्वर्ग गतः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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