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________________ पञ्चम अध्याय । ६०३ उक्त मतावलम्बी भावें हम उन के साथ शास्त्रार्थ करने को तैयार हैं" गुरुजी के इस वचन को सुन कर राजा ने अपने कुटुम्बी और सगे सम्बन्धियों से कहा कि" जाकर अपने गुरु को बुला लाओ " राजा की आज्ञा पाकर दश बीस मुख्य २ मनुष्य गये और अपने मत के नेता से कहा कि - " जैनाचार्य अपने मत को व्यभिचार प्रधान तथा बहुत ही बुरा बतलाते हैं और अहिंसामूल धर्म को सबसे उत्तम बतला कर उसी का स्थापन करते हैं, इस लिये आप कृपा कर उन से शास्त्रार्थ करने के लिये शीघ्र ही चलिये" उन लोगों के इस वाक्य को सुन कर पान किये हुए तथा उस के नशे में उन्मत्त उस मत का नेता श्रीरत्नप्रभ सूरि महाराज के पास आया परन्तु पाठकगण जान सकते हैं कि-सूर्य के सामने अन्धकार कैसे ठहर सकता है ? बस दयामूल धर्मरूपी सूर्य के सामने उस का अज्ञानतिमिर ( अज्ञानरूपी अँधेरा ) दूर हो गया अर्थात् वह शास्त्रार्थ में हार गया तथा परम लज्जित हुआ, सत्य है कि उल्लू का जोर रात्रि में ही रहता है किन्तु जब सूर्योदय होता है तब वह नेत्रों से भी नहीं देख सकता है, अब क्या था - श्रीरतप्रभ सूरि का उपदेश और ज्ञानरूपी सूर्य का उदय ओसियाँपट्टन में हो गया और वहाँ का अज्ञानरूपी सब अन्धकार दूर हो गया अर्थात् उसी समय राजा उपलदे पँवार ने हाथ जोड़ कर सम्यक्त्वसहित श्रावक के बारह व्रतों का ग्रहण किया और १- इन मतों के खण्डन के ग्रन्थ श्रीहेमाचार्य जी महाराज तथा श्रीहरिभद्र सूरि जी के बनाये हुए संस्कृत में अनेक हैं परन्तु केवल भाषा जाननेवालों के लिये वे ग्रन्थ उपकारी नहीं हैं, अतः भाषा जाननेवालों को यदि उक्त विषय देखना हो तो श्रीचिदानन्दजी मुनिकृत स्याद्वादानुभवरलाकर नामक ग्रन्थ को देखना चाहिये, जिस का कुछ वर्णन हम इसी ग्रन्थ के दूसरे अध्याय में नोट में कर चुके हैं, क्योंकि यह ग्रन्थ भाषामात्र जाननेवालों के लिये बहुत ही उपयोगी है | २ - राजा उपलदे पँवार ने दयामूल धर्म के ग्रहण करने के बाद श्रीमहावीर स्वामी का मन्दिर ओसियाँ में बनवाया था और उस की प्रतिष्ठा श्रीरत्नप्रभ सूरि महाराज ने ही करवाई थी, वह मन्दिर अब भी ओसियाँ में विद्यमान ( मौजूद ) है परन्तु बहुत समय बीत जाने के कारण वह मन्दिर चिरकाल से अत्यन्त जीर्ण हो रहा था तथा ओसियाँ में श्रावकों के घरों होने से पूजा आदि का भी प्रबन्ध यथोचित नहीं था, अतः फलोधी ( मारवाड़ ) निवासी गोलेच्छागोत्र भूषण श्रीमान् श्री फूलचन्द जी महाशय ने उस के जीर्णोद्धार में अत्यन्त प्रयास ( परिश्रम ) किया है अर्थात् अनुमान से पाँच सात हज़ार रुपये अपनी तरफ से लगाये हैं तथा अपने परिचित श्रीमानों से कह सुन कर अनुमान से पचास हज़ार रुपये उक्त महोदय ने अन्य भी लगवाये हैं, तात्पर्य यह है कि उक्त महोदय के प्रशंसनीय उद्योग से उक्त कार्य में करीब साठ हजार रुपये लग चुके हैं तथा वहाँ का सर्व प्रबन्ध भी उक्त महोदय ने प्रशंसा के योग्य कर दिया है, इस शुभ कार्य के लिये उक्त महोदय को जितना धन्यवाद दिया जावे वह थोड़ा है क्योंकि मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाना बहुत ही पुण्यस्वरूप कार्य है देखो ! जैनशास्त्रकारों ने नवीन मन्दिर के बनवाने की अपेक्षा प्राचीन मन्दिर के जीर्णोद्धार का आठ गुणा फल कहा है ( यथा च-नवीन जिनगेहस्य, विधाने यत्फलं भवेत् ॥ तस्मादष्टगुणं पुण्यं, जीर्णोद्धारेण जायते ॥ १ ॥ इसका अर्थ स्पष्ट ही है ) परन्तु महाशोक का विषय है कि वर्तमान काल के श्रीमान् लोग अपने नाम की प्रसिद्धि के लिये नगर में जिनालयों के होते हुए भी नवीन जिनालयों को बनवाते हैं परन्तु प्राचीन जिनालयों के उद्धार की तरफ बिलकुल ध्यान नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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