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________________ पञ्चम अध्याय । ५९३ एवं समस्त आचार्यगुणों से परिपूर्ण, उपकेशगच्छीय जैनाचार्य श्री रत्नप्रभसूरि जी महाराज पाँच सौ साधुओं के साथ विहार करते हुए श्री आबू जी अचलगढ़ पर पधारे थे, उन का यह नियम था कि वे ( उक्त सूरि जी महाराज) मासक्षमण से पारणा किया करते थे, उन की ऐसी कठिन तपस्या को देख कर अचलगढ़ की अधिष्ठात्री अम्बा देवी प्रसन्न होकर श्री गुरु महाराज की भक्त हो गई, अतः जब उक्त महाराज ने वहाँ से गुजरात की तरफ विहार करने का विचार किया तब अम्बा देवी ने हाथ जोड़ कर उन से प्रार्थना की कि-'हे परम गुरो ! आप मरुघर (मारवाड़) देश की तरफ विहार कीजिये, क्योंकि आप के उधर पधारने से दयामूल धर्म (जिनधर्म ) का उद्योत होगा" देवी की इस प्रार्थना को सुन कर उक्त आचार्य महाराज ने उपयोग देकर देखा तो उन को देवी का उक्त वचन ठीक मालूम हुआ, तब महाराज ने अपने साथ के पाँच सौ मुनियों (साधुओं) को धर्मोपदेश देने के लिये गुजरात की तरफ विचरने की आज्ञा दी तथा आप एक शिष्य को साथ में रख कर ग्रामानुग्राम (एक ग्राम से दूसरे ग्राम में) विहार करते हुए ओसियाँ पट्टन में आये तथा नगर के बाहर किसी देवालय में में अब तक 'माहाजन' नाम का ही व्यवहार होता है, जैसलमेर में "माहाजनसर" नामक एक कुआ है जिस को बने हुए अनुमान सात सौ वर्ष हुए हैं ) इस लिये हम ने भी इतिहासलेखन में तथा अन्यत्र भी इसी नाम का उल्लेख किया है। बहुत से लोग माहाजनवंशवालों (ओसवालों) को वणियाँ वा वाणियाँ (वैश्य) कहा करते हैं, यह उन की बड़ी भूल है, क्योंकि उक्त वंशवाले जैन क्षत्रिय (जिनधर्मानुयायी राजपूत ) हैं, इस लिये इन को वैश्य समझना महाभ्रम है। हमारे बहुत से भोलेभाले ओसवाल भ्राता भी दूसरों के कथन से अपनी वैश्य जाति सुन अपने को वैश्य ही समझने लगे हैं, यह उन की अज्ञता है, उन को चाहिये कि-दूसरों के कथन से अपने को वैश्य कदापि न समझें, किन्तु ऊपर लिखे अनुसार अपने को जैनक्षत्रिय मानें। हमने श्रीमान् मान्यवर सेठ श्री चाँदमल जी ढड्डा (बीकानेर) से सुना है कि-बनारसनिवासी राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने मनुष्यसंख्या के परिगणन (मर्दुमशुमारी की गिनती) में अपने को जैनक्षत्रिय लिखाया है, हमें यह सुन कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई, क्योंकि बुद्धिमान् का यही धर्म है कि-अपने प्राचीन वंश क्रम को ठीक रीति से समझ कर तदनुकूल ही अपने को माने और प्रकट करे ॥ १-इस नगरी के वसने का कारण यह है कि-श्रीमाल नगर (जिस को अब भीनमाल कहते हैं) का राजा पँवार वंशी भीमसेन का पुत्र श्रीपुञ्ज था, उस का पुत्र उत्पल (ऊपलदे) कुमार और उहड़ मन्त्री, ये दोनों जन अठारह हजार कुटुम्ब के सहित किसी कारण से दूसरा नगर वसाने के लिये श्रीमाल नगर से निकले थे और वर्तमान में जिस स्थान पर जोधपर वसा है उस से पन्द्रह कोश के फासले पर उत्तर दिशा में लाखों मनुष्यों की वस्तीरूप उपकेशपट्टण (ओसियाँ) नामक नगर वसाया था, यह नगर थोड़े ही समय में अच्छी शोभा से युक्त (रौनकदार ) हो गया, तेईसवें तीर्थङ्कर श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के छठे पाटधारी श्री रत्नप्रभसूरि महाराज वीर संवत् ७० (महावीर स्वामी के निर्वाण से ७० वर्ष पीछे) अर्थात् विक्रम संवत् ४०० (चार सौ) वर्ष पहिले विहार करते हुए जब ओसियाँ पधारे थे उस समय यह नगर गढ़, मठ, धन, धान्य, वस्त्र और सर्व प्रकार के पण्य द्रव्यादि (व्यापार करने योग्य वस्तुओं आदि ) के व्यापार से परिपूर्ण ( भरपूर) था॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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