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________________ ५८० जैनसम्प्रदायशिक्षा। प्रत्येक को एक एक टका भर लेकर कपड़छान चूर्ण कर उस पाक की चासनी में मिला देना चाहिये तथा टका २ भर की कतली अथवा लड्डु बना लेने चाहियें, इन को अग्नि के बलाबल का विचार कर खाना चाहिये, इन के सेवन से आमवात, वादी के सब रोग, विषम ज्वर, पाण्डुरोग, कामला, उन्माद ( हिष्टीरिया), अपस्मार (मृगीरोग), प्रमेह, वातरक्त, अम्लपित्त, रक्तपित्त, शीतपित्त, मस्तकपीड़ा, नेत्ररोग और प्रदर, ये सब रोग नष्ट हो जाते हैं, देह में पुष्टता होती है तथा बल और वीर्य की वृद्धि होती है। २८-लहसुन १०० टकेभर, काले तिल पावभर, हींग, त्रिकुटा, सज्जीखार, जबाखार पांचों निमके, सोंफ, हलदी, कूठ, पीपरामूल, चित्रक, अजमोदा, अज. बायन और धनिया, ये सब प्रत्येक एक एक टकाभर लेकर इन का चूर्ण कर लेना चाहिये तथा इस चूर्ण को घी के पात्र में भर के रख देना चाहिये, १६ दिन बीत जाने के बाद उस में आध सेर कडुआ तेल मिला देना चाहिये, तथा अधसेर कांजी मिला देना चाहिये फिर इस में से एक तोले भर नित्य खाना चाहिये तथा इस के ऊपर से जल पीना चाहिये, इसके सेवन से आमवात, रक्तवात, सर्वोगवात, एकांगवात, अपस्मार, मन्दाग्नि, श्वास, खांसी, विष, उन्माद, वातभन्न और शूल ये सब रोग नष्ट हो जाते हैं। २९-लहसुन का रस एक तोला तथा गाय का घी एक तोला, इन दोनों को मिला कर पीना चाहिये, इस के पीने से भामवात रोग अवश्य नष्ट हो जाता है। __३०-सामान्य वातव्याधि की चिकित्सा में जो ग्रन्थान्तरों में रसोनाष्टक औषध लिखा है वह भी इस रोग में अत्यन्त हितकारक है। ___३१-लेप-सोंफ, बच, सोंठ, गोखुरू, वरना की छाल, पुनर्नवा, देवदारु, कचूर, गोरखमुंडी, प्रसारणी, अरनी और मैनफल, इन सब औषधों को कांजी अथवा सिरके में वारीक पीस कर गर्म २ लेप करना चाहिये, इस से आमवात नष्ट होता है। ___ ३२-कलहीस, केवुक की जड़, सहजना और बमई की मिट्टी, इन सब को गोमूत्र में पीसकर गाड़ा २ लेप करने से आमवात रोग मिट जाता है। ____३३-चित्रक, कुटकी, पाढ, इन्द्रजौं, अतीस, गिलोय, देवदारु, वच, मोथा, सोंठ और हरड़, इन ओषधियों का क्वाथ पीने से आमवात रोग शान्त हो जाता है। १-त्रिकुटा अर्थात् सोंठ, मिर्च और पीपल ॥ २-पाँचों निमक अर्थात् तेंधानिमक, सौवर्चलनिमक, कालानिमक, सामुद्रनिमक और औद्भिदनिमक ॥ ३-कडुआ तेल अर्थात् सरसों का तेल ॥ ४-सर्वांगवात अर्थात् सब अंगों की वादी और एकाङ्गवात अर्थात् किसी एक अंग की वादी ॥ ५-अपस्मार अर्थात् मृगीरोग ॥ ६-इसे भाषा में पसरन कहते हैं, यह एक प्रसर जाती की (फैलनेवाली) वनस्पति होती है ॥ ७-इसे हिन्दी में केउआँ भी कहते हैं ॥ ८-बमई को संस्कृत में बल्कीम कहते हैं, यह एक मिट्टी का ढीला होता है जिसे पुत्तिका (कीटविशेष ) इकट्ठा करती है, इसे भाषा में बमौटा भी कहते हैं ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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