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________________ चतुर्थ अध्याय । ५६७ बायें करबट सुला के बाई जांघ को फैला कर और दाहिनी जांघ को सकोड़ कर चिकनी गुदा में पिचकारी की नली को रक्खे, उस नली में वस्ति के मुख को सूत से बाँध कर बायें हाथ में ले कर दाहिने हाथ से मध्यम वेग से धीर चित्त होकर दबावे. जिस समय वस्ति की जावे उस समय रोगी जंभाई खांसी तथा छींकना आदि न करे; पिचकारी के दावने का काल तीस मात्रा पर्यन्त है, जब खेह सब शरीर में पहुँच जावे तब सौ वाक् पर्यन्त चित्त लेटा रहे (वाक और मात्रा का परिमाण अपने घोंट पर हाथ को फेर कर चटकी बजाने जितना माना गया है, अथवा आँख बन्द कर फिर खोलना जितना है, अथवा गुरु अक्षर के उच्चारण काल के समान है) फिर सब देह को फैला देना चाहिये कि जिस से लेह का असर सब शरीर में फैल जावे, फिर रोगी के पैर के तलवों को तीन वार ठोंकना चाहिये, फिर इस की शय्या को उठा कर कूले और कमर को तीन वार ठोकना चाहिये, फिर पैरों की तरफ से शय्या को तीन २ वार ऊँची करना चाहिये, इस प्रकार सब विधि के होने के पश्चात् रोगी को यथेष्ट सोना चाहिये, जिस रोगी के पिचकारी का तेल विना किसी उपद्रव के अधोवायु और मल के साथ गुदा से निकले उस के वस्ति का ठीक लगना जानना चाहिये, फिर पहिले का भोजन पच जाने पर और तेल के निकल आने पर दीप्ताग्नि वाले रोगी को सायंकाल में हलका अन्न भोजन के लिये देना चाहिये, दूसरे दिन स्नेह के विकार के दूर करने के लिये गर्म जल पिलाना चाहिये, अथवा धनियां और सोंठ का काढ़ा पिलाना चाहिये, इस प्रकार से छ. सात आठ अथवा नौ अनुवासन वस्तियां देनी चाहिये, ( इन के बाद अन्त में निरूहण वस्ति देनी चाहिये)। वस्ति के गुण-पहिली वस्ति से मूत्राशय और पेडू चिकने होते हैं, दूसरी वस्ति से मस्तक का पवन शान्त होता है. तीसरी वस्ति से बल और वर्ण की वृद्धि होती है, चौथी और पाँचवीं वस्ति से रस और रुधिर स्निग्ध होते हैं, छठी वस्ति से मांस स्निग्ध होता है, सातवीं वस्ति से मेद स्निग्ध होता है. आठवीं और नवीं वस्ति से क्रम से मांस और मजा स्निग्ध होते हैं, इस प्रकार अठारह वस्तियों तक लगाने से शुक्र तक के यावन्मात्र विकार दूर होते हैं, जो पुरुष अठराह दिन तक अठारह वस्तियों का सेवन करलेवे वह हाथी के समान बलवान्, घोड़े के समान वेगवान् और देवों के समान कान्ति वाला हो जाता है, रूक्ष तथा अधिक वायु वाले मनुष्य को तो प्रति दिन ही वस्ति का सेवन करना चाहिये तथा अन्य मनुष्यों को जठराग्नि में बाधा न पहुँचे इस लिये तीसरे २ दिन वस्ति का सेवन करना चाहिये, रूक्ष शरीर वाले मनुष्यों को अल्प मात्रा भी अनुवासन वस्ति दी जावे तो बहुत दिनों तक भी कुछ हर्ज नहीं है किन्तु स्निग्ध मनुष्यों को थोड़ी मात्रा की निरूहण वस्ति दी जावे तो वह उन के अनुकूल होती है, अथवा जिस मनुष्य के वस्ति देने के पीछे तत्काल ही केवल स्नेह पीछा निकले उस के बहुत थोड़ी मात्रा की वस्ति देनी चाहिये, क्योंकि स्निग्ध शरीर में दिया हुआ लेह स्थिर नहीं रहता है । वस्ति के ठीक न होने के अवगुण-वस्ति से यथोचित शुद्धि न होने से (विष्ठा के साथ तेल के पीछा न निकलने से ) अंगों की शिथिलता, पेट का फूलना, शूल, श्वास तथा पक्वाशय में भारीपन, इत्यादि अवगुण होते हैं, ऐसी दशा में रोगी को तीक्ष्ण औषधों की तीक्ष्ण निरूहण वस्ति देनी चाहिये, अथवा वस्त्रादि की मोटी बत्ती बना कर उस में औषधों को भर कर अथवा औषधों को लगा कर गुदा में उस का प्रवेश करना चाहिये, ऐसा करने से अधोवायु का अनुलामन (अनुकुल गमन) हो कर मल के सहित स्नेह बाहर निकल जावेगा, ऐसी दशा में विरेचन का देना भी लाभकारी होता हैं तथा तीक्ष्ण नस्य का देना भी उत्तम होता है, अनुवासन वस्ति देने पर यदि खेह बाहर न निकलने पर भी किसी प्रकार का उपद्रव न करे तो समझ लेना चाहिये कि शरीर के रूक्ष होने से वस्ति का सब स्नेह उस के शरीर में काम में आ गया है, ऐसी दशा में उपाय कर लेह के निकालने की कोई आवश्यकता नहीं है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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