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________________ चतुर्थ अध्याय । ५६५ यह परिणाम काथादि की औषधि की मात्रा का है, विरेचन के लिये कल्क; मोदक और चूर्ण की मात्रा एक तोले की ही है, इन का सेवन शहद, घी और अवलेह के साथ करना चाहिये, मात्रा का यह साधारण नियम कहा गया है इस लिये मात्रा एक तोले से लेकर दो तोले पर्यन्त बुद्धिमान् वैद्य रोगी के बलाबल का विचार कर दे सकता है । दोषानुसार विरेचन-पित्त के रोग में निसोत के चूर्ण को द्राक्षादि क्वाथ के साथ में, कफ के रोगों में सोंठ, मिर्च और पीपल के चूर्ण को त्रिफला के काढ़े और गोमूत्र के साथ में, वायु के रोगों में निसोत, सेंधानिमक और सोंठ के चूर्ण को खट्टे पदार्थों के साथ में देना चाहिये, अण्डी के तेल को दुगुने गाय के दूध में मिला कर पीने से शीघ्र ही विरेचन होता है, परन्तु अण्डी का तेल स्वच्छ होना चाहिये।ऋतु के अनुसार विरेचन-वर्षा ऋतु में निसोत, इन्द्रजौं, पीपल और सोंठ के चूर्ण में दाख का रस तथा शहद डाल कर लेना चाहिये, शरद् ऋतु में निसोत, धमासा, नागरमोथा, खांड, नेत्रवाला, चन्दन, दाख का रस और मौलेठी, इन सब को शीतल जल में पीस कर तथा छान कर (विनाऔटाये ही) पीना चाहिये, शिशिर और वसन्त ऋतु में पीपल, सोंठ, सेंधानिमक, सारिवा और निसोत का चूर्ण शहद में मिला कर खाना चाहिये । अभयादि मोदक-विरेचन के लिये अभयादि मोदक भी उत्तम पदार्थ है, इस का विधान वैद्यक ग्रन्थों में देख लेना चाहिये, यह विरेचन के लिये तो उत्तम है ही, किन्तु विरेचन के सिवाय यह विषमज्वर, मदाग्नि, पाण्डुरोग, खांसी, भगन्दर तथा वातजन्य पीठ; पसवाड़ा; जांघ और उदर की पीड़ा को भी दूर करता है । विरेचन में नियम-विरेचनकारक औषधि को पी कर शीतल जल से नेत्रों को छिड़कना चाहिये तथा सुगन्धि (अतर आदि) को सूंघ कर पान खाना चाहिये, हवा में नहीं बैठना चाहिये, तथा दस्त के वेग को रोकना नहीं चाहिये, इनके सिवाय नींद का लेना तथा शीतल जलस्पर्श का त्याग करना चाहिये, वारंवार गर्म जल को वा सोंफ आदि के अर्क को पीना चाहिये, जैसे वमनकारक औषधि के लेने से कफ, पी हुई औषधि, पित्त और वात निकलते हैं उसी प्रकार विरेचन की औषधि के लेने से मल, पित्त, पी हुई औपधि और कफ निकलते हैं। उत्तम विरेचन न होने के लक्षण-जिस को उत्तम प्रकार से विरेचन न हुआ हो उस की नाभि में पीड़ा युक्त कठोरता, कोख में दर्द, मल और अधोवायु का रुकना, देह में खुजली का चलना, चकत्तों का उठना, देह का गौरव, दाह, अरुचि, अफरा और वमन का होना, इत्यादि लक्षण होते हैं, ऐसी दशा में पाचन औषधि दे कर स्नेहन करना चाहिये, जब मल पक जावे और स्निग्ध हो जावे तब पुनः जुलाब देना चाहिये, ऐसा करने से जुलाब न होने के उपद्रव मिट कर तथा अग्नि प्रदीप्त होकर शरीर हलका हो जाता है। अधिक विरेचन होने के उपद्रव-अधिक विरेचन होने से मूर्छा, गुदभ्रंश (काछ का निकहना ), पेट में दर्द, आम का अधिक गिरना तथा दस्त में रुधिर और चर्बी आदि का निकलना, इत्यादि उपद्रव होते हैं, ऐसी दशा में रोगी के शरीर पर शीघ्र ही शीतल जल छिड़कना चाहिये, चावलों के धोवन में शहद डाल कर पिलाना चाहिये, हलका सा वमन कराना चाहिये, आमकी छालके कल्क को दही और जौं की कांजी में पीस कर नाभि पर लेप करने से दस्तों का घोर उपद्रव भी मिट जाता है, जौओं का सौवीर, शालि चावल, साठी चावल, बकरी का दूध, शीतल पदार्थ तथा ग्राही पदार्थ, इत्यादि पदार्थ अधिक दस्तों के होने को बंद कर देते है। उत्तम विरेचन होने के लक्षण-शरीर का हलका पन, मन में प्रसन्नता तथा अधोवायु का अनुकूल चलना, ये सब उत्तम विरेचन के लक्षण हैं । विरेचन के गुण-इन्द्रियों में बल का होना, बुद्धि में स्वच्छता, जठराग्नि का दीपन तथा रसादि धातु और अवस्था का स्थिर होना, ये सब विरेचन के गुण हैं । विरेचन में पथ्यापथ्य-अत्यंत हवा में बैठना, शीतल जल का स्पर्श, तेल की मालिश, अजीर्णकारी भोजन, व्यायामादि परिश्रम और मैथुन, ये सब विरेचन में अपथ्य हैं तथा शालि और साठी चावल, मूंग आदि का यवागू, ये सब पदार्थ विरेचन में पथ्य अर्थात् हितकारक हैं। ४८ जै० सं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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