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________________ चतुर्थ अध्याय । ५६१ ४-दारुहलदी, रसोत, चिरायता, अडूसा, नागरमोथा, बेलगिरी, लाल चन्दन और कमोदिनी के फूल, इन के क्वाथ को शहद डाल कर पीना चाहिये, इस के पीने से सब प्रकार का प्रदर अर्थात् लाल सफेद और पीड़ा युक्त भी शान्त हो जाता है। राजयक्ष्मा रोग का वर्णन । कारण-अधोवायु तथा मल और मूत्रादि बेगों के रोकने से, क्षीणता को उत्पन्न करनेवाले मैथुन; लंघन और ईर्ष्या आदि के अतिसेवन से, बलवान् के साथ युद्ध करने से तथा विषम भोजन से सन्निपातजन्य यह राजयक्ष्मा रोग उत्पन्न होता है। __ लक्षण-कन्धे और पसवाड़ों में पीड़ा, हाथ पैरों में जलन और सब अंगों में ज्वर, ये तीन लक्षण इस रोग में अवश्य होते हैं, इस प्रकार के यक्ष्मा को त्रिरूप यक्ष्मा कहते हैं। ___ अन में अरुचि, ज्वर, श्वास, खांसी, रुधिर का निकालना और स्वरभंग, ये छः लक्षण जिस यक्ष्मा में होते हैं उस को षरूप राजयक्ष्मा, कहते हैं। ___ वायु की अधिकतावाले यक्ष्मा में-स्वरभेद, शूल, कन्धे और पसवाड़ों का सूखना, ये लक्षण होते हैं। पित्त की अधिकतावाले यक्ष्मा में-ज्वर, दाह, अतीसार और थूक के साथ में रुधिर का गिरना, ये लक्षण होते हैं। __ कफ की अधिकतावाले यक्ष्मा में-मस्तक का कफ से भरा रहना, भोजन पर अरुचि, खांसी और कण्ठ का बिगड़ना, ये लक्षण होते हैं । सन्निपातजन्य राजयक्ष्मा में-सब दोषों के मिश्रित लक्षण होते हैं। साध्यासाध्यविचार-जो यक्ष्मा रोग उक्त ग्यारह लक्षणों से युक्त हो, अथवा छः लक्षणों से वा तीन लक्षणों (ज्वर खांसी और रुधिर का गिरना इन तीन लक्षणों) से युक्त हो उस को असाध्य समझना चाहिये।। हां इस में इतनी विशेषता अवश्य हैं कि-उक्त तीनों प्रकार का (ग्यारह लक्षणों वाला, छः लक्षणों वाला तथा तीन लक्षणों वाला) यक्ष्मा मांस और रुधिर से क्षीण मनुष्य का असाध्य तथा बलवान् पुरुष कष्टसाध्य समझा जाता है। __ इस के सिवाय-जिस यक्ष्मा रोग में रोगी अत्यन्त भोजन करने पर भी क्षीण होता जावे, अतीसार होते हों, सब अंग सूज गये हों तथा रोगी का पेट सूख गया हो वह यक्ष्मा भी असाध्य समझा जाता है। १-स्वरमा अर्थात् आवाज का टूट जाना, अर्थात् बैठ जाना ॥ २-मिश्रित अर्थात् मिले हुए ॥ ३-असाध्य अर्थात् चिकित्सा से भी न मिटने वाला ॥ ४-कष्टसाध्य अर्थान् मुश्किल से मिटने वाला ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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