SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय । ५५९ से छान लेना चाहिये, पीछे इस का सेवन करना चाहिये, इस का सेवन करने से त्रिदोष से उत्पन्न हुई छर्दि शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। १०-गिलोय के हिम में शहद डाल कर पीने से त्रिदोष की कठिन छर्दि भी मिट जाती है। ११-पित्तपापड़े के क्वाथ में शहद डाल कर पीने से पित्त की छर्दि मिट जाति है। १२-एलादि चूर्ण-इलायची, लौंग, नागकेशर, बेर की गुठली, खील, प्रियकु, मोथा, चन्दन और पीपल, इन सब औषधियों को समान भाग लेकर तथा इन का चूर्ण कर मिश्री और शहद को मिला कर उसे चाटना चाहिये, इस से कफ, वायु और पित्त की छर्दि मिट जाती है। १३-सूखे हुए पीपल के बक्कल (छाल) को लेकर तथा उस को जला कर राख कर लेना चाहिये, उस राख को किसी पात्र में जल डाल कर घोल देना चाहिये, थोड़ी देर में उस के नितरे हुए जल को लेकर छान लेना चाहिये, इस जल के पीने से छर्दि और अरुचि शीघ्र ही मिट जाती है । स्त्रीरोग (प्रदर ) का वर्णन । कारण-परस्पर विरुद्ध पदार्थ, मद्य, अध्यशन (भोजन के ऊपर भोजन करना), अजीर्ण, गर्भपात, अति मैथुन, अति चलना फिरना, अति शोक और उपवासादि के द्वारा शरीर का कृश होना, भार का ले जाता, लकड़ी आदि का लगना तथा दिन में सोना, इन कारणों से वात, पित्त, कफ और सन्निपात का चार प्रकार का प्रदर रोग उत्पन्न होता है। लक्षण-सब प्रकार के प्रदरों में अंगों का टूटना तथा हाथ पैरों में पीड़ा होती है। __ वातजन्य प्रदर-रूखा, लाल, झागों से मिला हुआ, मांस तथा सफेद पानी के समान थोड़ा २ बहता है तथा इस में तोद (सुई के चुभाने के समान पीड़ा) और आक्षेपक वायु की पीड़ा होती है। . पित्तजन्य प्रदर-कुछ पीला, नीला, काला, लाल तथा गर्म होता है, इस में पित्त के दाह से चमचमाहट युक्त पीड़ा होती है तथा प्रदर का वेग अधिक होता है। ___ कफजन्य प्रदर-आम रस (कच्चे रस) से युक्त, सेमर के गोंद के समान चिकना, कुछ पीला तथा मांस के धुले हुए जल के समान गिरता है, इस को श्वेत प्रदर कहते हैं। १-हिम की विधि औषधप्रयोग वर्णन नामक प्रकरण में पहिले लिख चुके हैं ॥ २-बेर की अर्थात् झडवेरी के बेर की ॥ ३-भूने हुए धान ( जिन में से चावल निकलते हैं )। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy