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________________ चतुर्थ अध्याय । ५४१ यदि कुछ दिनों तक दवा का योग न मिल सके तो उसके यत्र में लगना चाहिये परन्तु ऊपर लिखे पथ्यानुसार खुराक को जारी रखने में भूल नहीं करना चाहिये । जो मनुष्य इस रोग से मुक्ति (छुटकारा) पाने के बाद पुनः (फिर ) कुकर्म (बुरे काम) करते हैं अर्थात् ठोकर खाकर भी नहीं चेतते हैं उन को पञ्चाख्यानी गधा ही समझना चाहिये। प्रमेह अर्थात् सुजाख (गनोरिया) का वर्णन । सुज़ाख का रोग यद्यपि स्त्री तथा पुरुष दोनों के होता है परन्तु पुरुष की अपेक्षा स्त्री के इस का दर्द कम मालूम होता है, इस का कारण केवल यही है कि पुरुष की अपेक्षा स्त्री का मूत्रमार्ग बड़ा होता है, इस के सिवाय प्रायः यह भी देखा जाता है कि स्त्री की अपेक्षा यह रोग पुरुष के विशेष होता है। कारण-यह रोग व्यभिचार करने से उत्पन्न होता है तथा वेश्या और ढावेवाली स्त्रियां ही इस रोग का मूल (मुख्य) कारण होती हैं, तात्पर्य यह है कि व्यभिचार के हेतु (लिये) जिस स्थान में बहुत से स्त्री पुरुषों का आगमन तथा परिचय (मुलाकात) होता है वहीं से इस रोग की उत्पत्ति की विशेष सम्भावना होती है। इस के सिवाय रजस्वला स्त्री के साथ मैथुन करने से तथा जिस स्त्री के प्रदर का रोग हो अर्थात् किसी प्रकार की भी धातु जाती हो अथवा जिस के योनिमार्ग में वा कमल में किसी प्रकार की कोई व्याधि हो उस स्त्री के साथ भी संयोग करने से यह रोग हो जाता है। परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि-जिन के यह रोग हो जाता है उन में से प्रायः बहुत से लोग विषय सम्बन्ध में की हुई अपनी भूल को स्वीकार नहीं करते हैं किन्तु वे यही कहते हैं कि गर्म चीज़ के खाने में आ जाने के हेतु अथवा धूप में चलने से हमारे यह रोग हो गया है, परन्तु यह उन की भूल है, क्योंकि १-क्योंकि पथ्य का वर्ताव दवा से भी अधिक फायदा करता है, (प्रश्न) यदि पथ्य का सेवन दवा से भी अधिक फायदा करता है तो फिर दवा के लेने की क्या आवश्यकता है, केवल पथ्य का ही सेवन कर लेना चाहिये ? (उत्तर) वेशक ! पथ्य का सेवन दवा से भी अधिक फायदा करता है, परन्तु पथ्य सेवन के समय में दवा के लेने की केवल इतने अंश में आवश्यकता होती है कि रोग शीघ्र ही मिट जावे (क्योंकि दो सहायक मिल कर वैरी को जल्दी ही जीत लेते हैं) यों तो दवा को न लेकर भी केवल पथ्य का सेवन किया जावे तो भी रोग अवश्य मिट जावेगा परन्तु देर लगेगी, इस के विरुद्ध यदि केवल दवा का ही सेवन किया जावे और पथ्य का वर्ताव न किया जावे तो कुछ भी लाभ नहीं हो सकता है (इस विषय में पहिले लिख चुके हैं), तात्पर्य यह है कि पथ्य का सेवन मुख्य और दवा का लेना गौण साधन है। २-इस कलिकाल में वेश्याओं के समान यह एक नया व्यभिचार का ढंग चला है अर्थात् कलकत्ता और बम्बई आदि अनेक बड़े २ नगरों में कुट्टिनी (व्यभिचार की दलाली करनेवाली) स्त्री के मकान में आकर गृहस्थोंकी स्त्रियां और व्यभिचारी पुरुष कुकर्म करते हैं । ४६ जे० सं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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