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________________ चतुर्थ अध्याय । ५३९ लक्षण (चिह्न)-उपदंश रोग से युक्त माता पिता से उत्पन्न हुआ बालक जन्म से ही दुर्बल, गले हुए हाथ पैरोंवाला तथा मुर्दारसा होता है और उस की त्वचा (चमड़ी) में सल पड़े हुए होते हैं, उस की नाक श्लेष्म के समान (मानों नाक में श्लेष्म अर्थात् जुकाम भरा है इस प्रकार ) बोला करती है और पीछे नितम्ब (शरीर के मध्य भाग) पर तथा पैरों पर गर्मी के लाल २ चकत्ते निकलते हैं, मुखपाक हो जाता है तथा ओष्ठ (ओठ वा होठ) पर चाँदे पड़ जाते हैं। इस प्रकार के (उपदंश रोग से युक्त) बालक के जो दाँत निकलते हैं उन में से भागे के ऊपरले ( ऊपर के) दो चार दाँत चमत्कारिक (चमत्कार से युक्त) होते हैं, बे बूंठे होते है, उन के बीच में मार्ग होता है और वे शीघ्र ही गिर जाते हैं, किन्तु जो स्थिर (कायम) रहनेवाले दात निकलते हैं वे भी वैसे ही होते हैं तथा उन के ऊपर एक गड्ढा होता है। चिकित्सा-१-पहिले कह चुके हैं कि-पारा गर्मी के रोग पर मुख्य औषधि है, इस लिये बारसा की गर्मी पर भी उस का पूरा असर होता है अर्थात् उस का फायदा शीघ्र ही मालूम पड़ जाता है, गर्मी के कारण यदि किसी स्त्री के गर्भ का पात हुआ करता हो और उस को पारे की दवा देकर मुखपाक कराया जाये तो फिर गर्भ के ठहर कर बढ़ने में कुछ भी अड़चल नहीं होती है, तथा उस के गर्भ से जो सन्तति उत्पन्न होती है उस के भी गर्मी नहीं होती है, यदि बालक का जन्म होने के पीछे थोड़े दिनों में उस के शरीर पर गर्मी दीख पड़े तो उस बालक की माता को किसी कुशल वैद्य से पारे की दवा दिलानी चाहिये, अथवा यदि बालक कुछ बड़ा हो गया हो तो उस को पारे का मल्हम लगाना चाहिये, ऐसा करने से गर्मी मिट जावेगी, मल्हम के लगाने की रीति यह है कि-कपड़े की चींट पर पारे के मल्हम को चुपड़ कर उस चींट को बच्चे के पैरों पर अथवा पीठ पर बांध देना चाहिये, यह कार्य जब तक उपदंश न मिट जाये तब तक करते रहना चाहिये, इस से बहुत फायदा होता है क्योंकि-मल्हम के भीतर का पारा शरीर में जाकर उपदंश को मिटाता है, पारे की औषधि से जिस प्रकार बड़ी अवस्थावाले पुरुष के सहज में ही मुखपाक हो जाता है उस प्रकार बालक को नहीं होता है। १-क्योंकि माता पिता के द्वारा पहुँचा हुआ इस रोग का असर गर्भ ही में बालक को दुर्बल आदि ऊपर कहे हुए लक्षणोंवाला बना देता है ॥ २-वारसा का स्वरूप पहिले लिख चुके हैं ।। ३-अर्थात् पारे की दवा के देने से स्त्रीके गर्भ का पात नहीं होता है तथा वह गर्भ नियमानुसार पेट में बढ़ता चला जाता है ॥ ४-क्योंकि पारे की दवा के देने से माता ही में गर्मी का विकार शान्त हो जाता है अतः वह बालक के शरीर पर असर कैसे कर सकता है ॥ ५-अर्थात् पारे की दवा देने पर भी माता की गर्मी ठीक रीति से शान्त न होवे और बालक पर भी उस का असर पहुँच जावे ॥ ६-कि जिस से आगे को माता की गर्मी का असर बालक पर पड़ कर उस के लिये भयकारी न हो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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