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________________ ५३२ जैनसम्प्रदायशिक्षा | होती है कि जिस में रोगी की निद्रा ( नींद ) में भंग ( विघ्न ) पड़ता 'है, पैरों के हाड़ों पर, हाथ के हाड़ोंपर तथा डोस की हांसड़ी के हाड़ों पर इस प्रकार के टेकरे विशेष देखने में आते हैं, इस के सिवाय पंसुली और खोपड़ी के ऊपर भी ऐसे टेकरे हो जाते हैं, तथा हाड़ का भीतरी भाग भी सड़ने लगता है जिस से वह हाड़ गल कर आखिरकार मृत्यु हो जाती है । ६ - कभी २ सन्धिवायु के समान पहिले से ही सांधे ( जोड़ों के स्थान ) जकड़ जाते हैं और विशेषकर बड़े सांधे जकड़ जाते हैं जिस से रोगी को हाथ पैरों का हिलाना बुलाना भी अति कठिन हो जाता है, कभी २ छोटी अंगुलियों के तथा पैरों के भी सांधे जकड़ जाते हैं तथा सूज जाते हैं और कमर में भी बादी भर जाती है, यद्यपि सांधे थोड़े ही दिनों में अच्छे हो जाते हैं तथापि वे बहुत समय तक रोगी को कष्ट पहुँचाते रहते हैं । ७- कभी २ शरीर के किसी दूसरे स्थान में दिखलाई देने के पूर्व आँख दुखनी आती है तथा कभी २ आँख का दर्द पीछे से उठता है, आँख में कनीनिका ( भांफन ) का बरम (शोथ ) हो जाता है, कनीनिका के सूज जाने पर उस के ऊपर लीफ (लस ) नाम का रस उत्पन्न हो जाता है जिस से कनीनिका चिपक जाती है और कीकी विस्तृत नहीं होती है, आँख लाल हो जाते हैं तथा उस में और मस्तक ( माथे ) में अतिशय वेदना ( बहुत ही पीड़ा ) होती है, इस लिये रोगी को रात्रि में निद्रा का आना कठिन हो जाता है, केवल इतना ही नहीं किन्तु यदि ठीक समय पर आँख की संभाल ( खबरगिरी ) न की जावे तो आँख निकम्मी हो जाते हैं और दृष्टि का समूल नाश हो जाता है । तीसरे विभाग के चिह्न कुछ जनों को होते हैं तथा कुछ जनों को नहीं होते हैं परन्तु जिन लोगों के ये ( तीसरे विभाग के ) चिह्न होते हैं उन के ये चिह्न या तो कई वर्षोंतक क्रम २ से ( एक के पीछे दूसरा इस क्रम से ) हुआ करते हैं अथवा वारंवार एक ही प्रकार का चिह्न होता रहता है अर्थात् एक ही दर्द उठता रहता है, इस विभाग के चिह्नों का प्रारंभ थोड़े बहुत वर्षों के पीछे होता है तथा जब रोगी की तबियत बहुत ही अशक्त हो जाती है उस समय उन का ज़ोर विशेष मालूम पड़ता है । लीफ नामक जो रस उत्पन्न होता है उस रस का स्राव ( झराव ) होकर कई अवयवो में गांठें बँध जाती हैं तथा यह परिवर्तन ( फेरफार) कलेजा, फेफसा, १- अर्थात् रोगी को पीड़ा के कारण आराम पूर्वक नींद नहीं आती है ॥ २- सन्धिवायु के समान अर्थात् जिस प्रकार सन्धिवायु रोग में साँधे जखड़ जाते हैं उसी प्रकार ॥ ३- जैसा कि पहिले लिख चुके हैं ॥ ४- अर्थात् तीसरे दर्जे के चिह्न जिस मनुष्य के होते हैं उस के वे सब चिह्न एक चिर समय तक बारी २ से उत्पन्न होते रहते हैं अथवा उन चिह्नों में का कोईसा एक ही चिह्न वार २ उठता है अर्थात् उठकर शान्त हो जाता है और फिर उठता है ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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