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________________ ५२८ जैनसम्प्रदायशिक्षा | तीसरे विभाग में उन चिह्नों का समावेश होता है कि जो चिह्न सर्व गर्मी के रोगवालों के प्रकट नहीं होते हैं किन्तु किन्हीं २ के ही प्रकट होते हैं, तथा उन का असर प्रायः छाती और पेट के भीतरी अवयवों पर ही होता है, बहुत से लोग इस तीसरे विभाग के चिह्नों को दूसरे ही विभाग में गिन लेते हैं अर्थात् वे लोग दो ही विभागों में उपदंश रोग का समावेश करते हैं । जब द्वितीयपदंश के चिह्नों का प्रारंभ होता है उस समय बहुधा टांकी तो यद्यपि मुर्झाई हुई होती है तथापि उस स्थान में कुछ भाग कठिन अवश्य होता है, यह भी सम्भव है कि - रोगी पूर्व के चिह्नों को भूल जाता होगा परन्तु बहुत शीघ्र ( थोड़े ही समय में ) अंग में थोड़ा बहुत ज्वर आजाता है, गला आ गया हो ऐसा प्रतीत ( मालूम ) होने लगता है तथा उस में थोड़ा बहुत दर्द भी मालूम होता है, यदि मुख को खोल कर देखा जावे तो गले का द्वार, पड़त, जीभ तथा गले का पिछला भाग कुछ सूजा हुआ तथा लाल रंग का मालूम होता है, तात्पर्य यह है कि बहुधा इसी क्रम से दूसरे विभाग के चिह्नों का प्रारंभ होता है, परन्तु कभी २ ऐसा भी होता है कि ज्वर थोड़ा सा आता है तथा गला भी थोड़ा ही आता है, उस दशा में रोगी उस पर कुछ ध्यान भी नहीं देता है परन्तु इस के पश्चात् अर्थात् कुछ आगे बढ़ कर उपदंश का विभिन्न ( विचित्र ) प्रकार का दर्द उत्पन्न हो जाता है और जिस का कोई भी ठीक क्रम नहीं होता है अर्थात् किसी के पहिले आँख का दर्द उत्पन्न होता है, किसी की सन्धियां जकड़ जाती हैं, किसी के हाड़ों में दर्द उत्पन्न हो जाता है तथा किसी को पहिले त्वचा की गर्मी मालूम होती है इत्यादि, इस के सिवाय इस विभाग के चिह्न बहुधा दोनों तरफँ समान ही देखे जाते हैं, जैसे कि- दोनों हथेलियों में चटें हो जाती हैं, अथवा दोनों तरफ के हाड़ तथा सन्धियां एक साथ ऊपर को उठ जाती हैं । यह गर्मी का रोग शरीर के किसी विशेष भाग का रोग नहीं है किन्तु यह रोग रक्त (खून) के विकार ( विगाड़ ) से उत्पन्न होता है, इस लिये शरीर के हरएक भाग में इस का असर होता है, फिर देखो ! जिस को यह रोग हो चुकता है वह आदमी बहुधा निर्बल फीका और तेजहीन हो जाता है, इस का कारण भी उपर कहा हुआ ही जानना चाहिये । १- अर्थात् वे उपदंश के दो ही दर्जे मानते हैं ॥ २-गला आ गया हो अर्थात् गले में छाले पड़ गये हों ॥ ३ - अर्थात् दूसरे दर्जे के चिह्नों का उद्भव ज्वरादि पूर्वक होता है ॥ ४- अर्थात् रोगी को इस बात का ध्यान नहीं होता है कि आगे बढ़ कर दूसरे दर्जे के चिह्न मेरे शरीरपर पूर्णतया आक्रमण करेंगे ।। ५-अर्थात् ज्वरादिका क्रम जो ऊपर लिखा है वह ठीक रीति से नहीं होता है अर्थात् उस में व्यतिक्रम हो जाता है ॥ ६ - इस विभाग के अर्थात् दूसरे दर्जे के ॥ ७- दोनों तरफ अर्थात् शरीर के दाहिने और बायें तरफ ॥ ८-अर्थात् खून में विगाड़ हो जाने से इस रोग के चले जानेपर भी मनुष्य में बल, तेज और कान्ति आदि गुण उत्पन्न नहीं होते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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