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________________ ५०९ चतुर्थ अध्याय। ४-बेल का फल भी मरोड़े के रोग में एक अकसीर इलाज है अर्थात् बेल की गिरी को गुड़ और दही में मिला कर लेने से मरोड़ा मिट जाता है। ऊपर लिखे हुए इलाजों में से यदि किसी इलाज से भी फायदा न हो तो उस रोग को असाध्य समझ लेना चाहिये, पीछे उस असाध्य मरोड़े में दस्त पतला (पानी के समान ) आता है, शरीर में बुखार बना रहता है तथा नाड़ी शीघ्र चलती है। इस के सिवाय यदि इस रोग में पेट का दूखना बराबर बना रहे तो समझ लेना चाहिये कि आँतों में अभी शोथ (सूजन) है तथा अन्दर जखम है, ऐसी हालत में अथवा इस से पूर्व ही इस रोग का किसी कुशल वैद्य से इलाज करवाना चाहिये। संग्रहणी-पहिले कह चुके हैं कि-पुराने मरोड़े को संग्रहणी कहते हैं, उस (संग्रहणी) का निदान (मूल कारण) वैद्यकशास्त्रकारों ने इस प्रकार लिखा है कि कोष्ठ में अग्नि के रहने का जो स्थान है वही अन्न को ग्रहण करता है इस लिये उस स्थान को ग्रहणी कहते हैं, अर्थात् ग्रहणी नामक एक आँत है जो कि कच्चे अन्न को ग्रहण कर धारण करती है तथा पके हुए अन्न को गुदा के मार्ग से निकाल देती है, इस ग्रहणी में जो अग्नि है वास्तव में वही ग्रहणी कहलाती है, जब अग्नि किसी प्रकार दूषित ( खराब) होकर मन्द पड़ जाती है तब उस के रहने का स्थान ग्रहणी नामक आँत भी दूषित (खराब) हो जाती है। _ वैद्यकशास्त्र में यद्यपि ग्रहणी और संग्रहणी, इन दोनों में थोड़ासा मेद दिखलाया है अर्थात् वहां यह कहा गया है कि-जो आमवायु का संग्रह करती है उसे संग्रहणी कहते हैं, यह (संग्रहणी रोग) ग्रहणी की अपेक्षा अधिक भयदायक होता है परन्तु हम यहांपर दोनों की भिन्नता का परिगणन (विचार) न कर ऐसे इलाज लिखेंगे जो कि सामान्यतया दोनों के लिये उपयोगी हैं। कारण-जिस कारण से तीक्ष्ण मरोड़ा होता है उसी कारण से संग्रहणी भी होती है, अथवा तीक्ष्ण मरोड़ा के शान्त होने (मिटने) के बाद मन्दाग्निवाले पुरुष के तथा कुपथ्य आहार और विहार करनेवाले पुरुष को पुराना मरोड़ा अर्थात् संग्रहणी रोग हो जाता है। लक्षण-पहिले कह चुके हैं कि ग्रहणी आँत कच्चे अन्न को ग्रहण कर धारण १-अर्थात् उसे चिकित्साद्वारा भी न जाननेवाला जान लेना चाहिये ॥ २-चरक ऋषि ने कहा है कि “जठराग्नि के रहने का स्थान तथा भोजन किये हुए अन्न का ग्रहण करने से उस को ग्रहणी कहते है( वह कच्चे अन्न का ग्रहण तथा पक्क का अधःपातन करती है" ।। ३-यही छठी पित्तधरा नामक कला है तथा यह आमाशय और पक्वाशय के बीच में है ॥ ४-इसी लिये तो कहा गया है कि अतीसार रोग में जुलाब लेने के समान पथ्य करना चाहिये ।। ५-उस कारण का कथन पहिले किया जा चुका है ॥ ६-इस में प्रत्येक दोष के कुपित करने के कारण को भी जान लेना चाहिये अर्थात् वात को कुपित करनेवाला कारण वातजन्य संग्रहणी का भी कारण है, इसी प्रकार शेष दोषों में भी जान लेना चाहिये ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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