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________________ चतुर्थ अध्याय । ५०७ कभी २ किसी २ के इस रोग में थोड़ा बहुत बुखार भी हो जाता है, नाड़ी जल्दी चलती है और जीभपर सफेद थर (मैल) जम जाती है। ___ ज्यों २ यह रोग अधिक दिनों का (पुराना) होता जाता है त्यों २ इस में खून और पीप अधिक २ गिरता है तथा ऐंठन की पीड़ा बढ़ जाती है, बड़ी आँत के पड़त में शोथ (सूजन) हो जाता है, जिस से वह पड़त लाल हो जाता है, पीछे उस में लम्बे और गोल जखम हो जाते हैं, तथा उस में से पहिले खून और पीछे पीप गिरता है, इस प्रकार का तीक्ष्ण (तेज वा सख्त) मरोड़ा जब तीन वा चार अठवाड़ेतक बना रहता है तब वह पुराना गिना जाता है, पुराना मरोड़ा वर्षांतक चलता (ठहरता) है तथा जब इस का अच्छा और योग्य (मुनासिब) इलाज होता है तब ही यह जाता है, इसी पुराने मरोड़े को संग्रहेणी कहते हैं। पूरे पथ्य और योग्य दवा के न मिलने से इस रोग से हज़ारों ही आदमी मर जाते हैं। चिकित्सा-इस रोग की चिकित्सा करने से प्रथम यह देखना चाहिये किआँतों में सूजन है वा नहीं, इस की परीक्षा पेट के दबाने से हो सकती है अर्थात् जिस जगह पर दबाने से दर्द मालूम पड़े उस जगह सूजन का होना जानना चाहिये, यदि सूजन मालूम हो तो पहिले उस की चिकित्सा करनी चाहिये, सूजन के लिये यह चिकित्सा उत्तम है कि-जिस जगह पर दबाने से दर्द मालूम पड़े उस जगह राई का पलाष्टर (पलस्तर) लगाना चाहिये, तथा यदि रोगी सह सके तो उस जगह पर जोंक लगाना चाहिये और पीछे गर्म पानी से सेंक करना चाहिये, तथा अलसी की पोल्टिस लगानी चाहिये, ऐसी अवस्था में रोगी को स्नान नहीं करना चाहिये और न ठंढी हवा में बाहर निकलना चाहिये किन्तु बिछौनेपर ही सोते रहना चाहिये, आँतों में से मल से भरे हुए मैल को निकालने के लिये छः मासे छोटी हरड़ों का अथवा सोंठ की उकाली में अंडी के तेल का जुलाब देना चाहिये, क्योंकि प्रायः प्रारंभावस्था में मरोड़ा इस प्रकाराके जुलाब से ही मिट जाता है अर्थात् पेट में से मैल से युक्त मल निकल जाता है, दस्त साफ होने लगता है तथा पेट की ऐंठन और वारंवार दस्त की हाजत मिट जाती है । १-क्योंकि आँतो में फंसा हुवा मल आँतों को रगड़ता है ॥ २-अर्थात् पुराना मरोड़ा हो जानेपर दूषित हुई जठराग्नि ग्रहणी नाम छठी कला को भी दूषित कर देती है (अग्निधरा कला को संग्रहणी वा ग्रहणी कहते हैं )॥ ३-क्योंकि सूजन के स्थान में ही दबाव पड़ने से दर्द हो सकता है अन्यथा (सूजन न होनेपर) दबाने से दर्द नहीं हो सकता है ॥ ४-पहिले सूजन की चिकित्सा हो जाने से अर्थात् चिकित्साद्वारा सूजन के निवृत्त हो जाने से आँतें नरम पड जाती हैं और आँतों के नरम पड़ जाने से मरोडा के लिये की हुई चिकित्सा से शीघ्र ही लाभ पहुँचता है ॥ ५-क्योकि पलाष्टर आदि के लगाने के समय मे लान करने से अथवा ठंढ़ी हवा के लग जाने से विशेष रोग उत्पन्न हो जाते हैं तथा कभी २ सूजन में भी ऐसा विकार हो जाता है कि मिटती नहीं है तथा पक २ कर फूटने लगती हैं, इस लिये ऐसी दशा में स्नान आदि न करने का पूरा ध्यान रखना चाहिये ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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