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________________ चतुर्थ अध्याय । ४९९ (जिस को हम संक्षेप से इसी अध्याय में लिख चुके हैं) उस के अनुसार ही व्यवहार करें , क्योंकि उस पर चलना ही उन के लिये कल्याणकारी है, तात्पर्य यह है कि-आर्यावर्त के निवासियों को इस (आर्यावर्त) देश के अनुसार ही अपना पहिराव, भेष, खान, पान तथा चाल चलन रखना चाहिये, अर्थात् भाषा (बोली), भोजन, भेष और भाव, इन चार बातों को अपने देश के अनुसार ही रखना चाहिये, ये उपर कही हुई चार बातें मुख्यतया ध्यान में रखने की हैं। ५-मद्य का सेवन नहीं करना चाहिये अर्थात् मद्य को कभी नहीं पीना चाहिये। ६-भोजन करने के समय में अथवा भोजन करने के पीछे शीघ्र ही अधिक जल नहीं पीना चाहिये, तथा बहुत गर्म चाय वा काफी को नहीं पीना चाहिये, यदि कोई पतला पदार्थ पीने में आवे तो वह बहुत गर्म वा बहुत ठंढा नहीं होना चाहिये। ____७-तमाखू को नहीं सूंघना चाहिये, यदि कदाचित् नकसीर रोग के बन्द करने के लिये वा कफ और नजले के निकालने के लिये उस के सूंघने की आवश्यकता हो वा उस का व्यसन पड़ गया हो तो यथाशक्य ( जहांतक हो सके) उसे छोड़ कर दूसरी दवा से उस का कार्य लेना चाहिये, यदि कदाचित् अतिव्यसन हो जाने के कारण वह न छूट सके तो इतना खयाल तो अवश्य रखना चाहिये कि-भोजन करने से प्रथम उसे कभी नहीं सूंघना चाहिये, क्योंकि भोजन करने से प्रथम तमाखू के सूंघने से भूख बन्द हो जाती है, इस बात की परीक्षा प्रत्येक सूंघनेवाला पुरुष कर सकता है। ८-खाने की तमाखू भी सूंघने की तमाखू के समान ही अवगुण करती है, परन्तु तमाखू खानेवाले लोग यह समझते हैं कि-तमाखू के खाने से खुराक हज़म होती है, सो उन का यह खयाल करना अत्यन्त गलत है, क्योंकि तमाखू के खाने से उलटा अजीर्ण रहता है। ९-बहुत परिश्रम नहीं करना चाहिये, खुली हुई स्वच्छ (साफ) हवा में अच्छे प्रकार भ्रमण करना (घूमना) चाहिये, यदि बहुत नींद लेने की (सोने की) आदत हो तो उसे छोड़ देना चाहिये तथा प्रातःकाल शीघ्र उठ कर खुली हुई स्वच्छ हवा में घूमना फिरना चाहिये। १-इन चारों बातों को ध्यान में रख कर देश, काल और प्रकृति आदि को विचार कर जो वर्ताव करेगा वही कभी धोखे में नहीं पड़ेगा॥ २-यद्यपि प्रारम्भ में इस से कुछ लाभ सा प्रतीत होता है परन्तु परिणाम में इस से बड़ी भारी हानि पहुँचती है, यह सुयोग्य वैद्य और डाक्टरों ने ठीक रीति से परीक्षा कर के निर्धारित किया है । ३-क्योंकि भोजन करने के समय में अथवा भोजन करने के पीछे शीघ्र ही अधिक जल पीने से खाये हुए अन्न का ठीक रीति से पाचन नहीं होता है ॥ ४-यद्यपि शारीरिक (शरीरसम्बन्धी ) परिश्रम भी विशेष नहीं करना चाहिये किन्तु मानसिक (मनःसम्बन्धी) परिश्रम तो भूल कर भी विशेष नहीं करना चाहिये, क्योंकि मानसिक परिश्रम से यह रोग विशेष बढ़ता है ॥ ५-स्वच्छ हवा में भ्रमण करने (घूमने) से इस रोग में बहुत ही लाभ होता है, यह बात पूरे तौर से अनुभव में आ चुकी है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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