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________________ १९० जैनसम्प्रदायशिक्षा। भेद ( प्रकार) देशी वैद्यकशास्त्र में अजीर्ण के प्रकरण में जठराग्नि के बिकारों का बहुत सूक्ष्मरीति से विचार किया है' परन्तु ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से उन सब का विस्तारपूर्वक वर्णन यहां नहीं लिख सकते हैं किन्तु आवश्यक जान कर उन का सारमात्र संक्षेप से यहां दिखलाते हैं: न्यूनाधिक तथा सम विषम प्रभाव के अनुसार जठराग्नि के चार भेद माने गये हैं-मन्दाग्नि, तीक्ष्णाग्नि, विषमाग्नि और समाग्नि । इन चारों के सिवाय एक अतितीक्ष्णाग्नि भी मानी गई है जिस को भस्मक रोग कहते हैं। __ इन सब अग्नियों का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिये कि-मन्दाग्निवाले पुरुष के थोड़ा खाया हुआ भोजन तो पच जाता है परन्तु किञ्चित् भी अधिक खाया हुआ भोजन कभी नहीं पचता है, तीक्ष्णाग्निवाले पुरुष का अधिक भोजन भी अच्छे प्रकार से पच सकता है, विषमाग्निवाले पुरुष का खाया हुआ भोजन कभी तो अच्छे प्रकार से पच जाता है और कभी अच्छे प्रकार से नहीं पचता है, इस पुरुष की अग्नि का बल अनियमित होता है इस लिये इस के प्रायः अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, समाग्निवाले पुरुष का किया हुआ भोजन ठीक समय पर ठीक रीति से पचजाता है तथा इस का शरीर भी नीरोग रहता है तथा तीक्ष्णाग्निवाला (भसकरोगवाला) पुरुष जो कुछ खाता है वह शीघ्र ही भस्म हो जाता है तथा उस को पुनः भूख लग जाती है, यदि उस भूख को रोका जावे तो उस की अतितीक्ष्णाग्नि उस के शरीर के धातुओं को खा जाती है (सुखा देती है)। १-क्योंकि अजीर्ण से और जठराग्नि के विकारों से परस्पर में बड़ा सम्बन्ध है, वा यों कहना चाहिये कि-अजीर्ण जठराग्निके विकाररूप ही है । २-चौपाई-स्वल्प मातरा भोजन खावै ॥ तो हूँ नाँहि पचै दुख पावै ॥१॥ छार्द गलानि भ्रम रु पर सेका ।। शीस जठर अति भारी जेका ॥२॥ मन्द अग्नि इन लखणां जानो। तामें कफहि प्रबल पहिचानो ॥३॥ स्वल्प हु अधिक मातरा लेवै ॥ सो पचि जाय प्राण सुख देवै ॥ ४ ॥ बल अति वर्ण पुष्टता धारै ॥ पित्त प्रधान तीक्ष्ण गुण कारै ॥ ५॥ कबहुँ पचै अन कबहूँ नाहीं ॥ शूल आफरा उदर रहाहीं ॥६॥ गुडगुड़ शब्द उदर में भासै ॥ कबहुँक मल स्रावक अति तासै ॥ ७ ॥ विषम अगनि के ये हैं लिङ्गा ।। या मैं बल वायू को सङ्गा ॥८॥ नित्य प्रमाण मातरा अन की ।। सुख से पचै घटै नहि जन की ॥ ९ ॥ सम अगनी यह नाम बखानो॥ चार अगनी में श्रेष्ठ जु जानो ॥१०॥ सम अगनी जाके तन होई ॥ पूरव जन्म पुण्य फल सोई ॥११॥ तीक्ष्ण अग्नि जाके तन होवै ॥ पथ्य कुपथ्य को ज्ञान न जोवै ॥ १२ ॥ रूक्ष कटुक अति भोजन सेवै ॥ विना दुग्ध घृत अन नित लेवै ।। १३ ॥ क्षीण होय कफ जबहीं जाके । वृद्ध होय पित वायू ताके ॥ १४॥ तीक्ष्ण अग्नि वायू कर बड़ही ॥ पक्क अपक्क अन्न अति चढ़ही ॥ १५ ॥ जो खावहि सो भस्भहि थावै ॥ तातें भस्मक नाम कहावै ।। १६ ॥ भोजन समय उलंघन करही। तब ही रक्त मांस को हरही ॥ १७ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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