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________________ चतुर्थ अध्याय। देवी के कोप से प्रकट होता है', इस लिये इस रोग की दवा करने से वह देवी क्रुद्ध हो जाती है इसवास्ते कोई भी दवा नहीं करनी चाहिये, यदि दवा की भी जावे तो लौंग सोंठ और किसमिस आदि साधारण वस्तुओं को कुल्हिये (कुल्हड़ी) में छौंक कर देना चाहिये, और उन्हें भी देवी के नाम की आस्था (श्रद्धा) रख कर देना चाहिये इत्यादि, ऐसे व्यर्थ और मिथ्या भ्रम (बहम) के कारण इस रोग की दवा न करने से हज़ारों बच्चे इस रोग से दुःख पाकर तथा सड़ २ कर मरते थे। __ यद्यपि यह मिथ्याभ्रम अब कहीं २ से नष्ट हुआ है तथापि बहुत से स्थानों में यह अब तक भी अपना निवास किये हुए है, इस का कारण केवल यही है कि वर्तमान समय में हमारे देश की स्त्री जाति में अविद्यान्धकार ( अज्ञानरूपी अँधेरा) अधिक प्रसरित हो रहा है (फैल रहा है, ऐसे समय में स्वार्थी और पाखण्डी जनों ने स्त्रियों को बहका कर देवी के नाम से अपनी जीविका चला ली है, न केवल इतना ही किन्तु उन धूतों ने अपने जाल में फंसाये रखने के हेतु कुछ समय से शीतलाष्टक आदि भी बना डाले हैं, इस लिये उन धूर्तों के कपट का परिणाम यहां की स्त्रियों में पूरे तौर से पड़ रहा है कि स्त्रियां अभी तक उस शीतला देवी की मानता किया करती हैं, बड़े अफसोसका स्थान है कि हमारे देशवासी जन डाक्टर जेनर साहब की इस विषय की जांच का शुभकारी प्रत्यक्ष फल देख कर भी अपने भ्रम (बहम) को दूर नहीं करते हैं और न अपनी स्त्रियों को समझाते हैं यह केवल अविद्या देवी के उपासकपन का चिह्न नहीं तो और क्या है ? हे आर्यमहिलाओ ! अपने हिताहित का विचार करो और इस बात का हृदय में निश्चय कर लो कि यह रोग देवी के कोप का नहीं है अर्थात् झूठे बहम को बिलकुल छोड़ दो, देखो ! इस बात को तुम भी जानती और मानती हो कि अपने पुरुष जन (बड़ेरे लोग) इस रोग का नाम माता कहते चले आये हैं सो यह बहुत ठीक है परन्तु तुम ने इस के असली तत्त्व का अब तक विचार नहीं किया कि पुरुष जन इस रोग को माता क्यों कहते हैं, असली तत्त्व के न विचार ने से ही धूर्त और स्वार्थी जनों ने तुम को धोखा दिया है अर्थात् माता शब्द से शीतला देवीका ग्रहण करा के उस के पुजवाने के द्वारा अपने स्वार्थ की १-यदि ऐसा न होता तो अन्य उपयोगी चिकित्साओं को छोड़ कर क्यों शीतला माता का आश्रय लिये बैठे रहते ॥ २-क्योंकी उन को यह भी भ्रम है कि-देवी के नाम की आस्था न रख कर दी हुई साधारण वस्तु भी कुछ लाभ नहीं कर सकती है और ऐसा करने से भी देवी अधिक क्रुद्ध हो जावेगी इत्यादि । ३-यह बात सब को विदित ही होगी अथवा रिपोर्टों से विदित हो सकती है ।। ४-यद्यपि पुरुषों के विचार अब कुछ पलट गये हैं तथा पलटते (बदलते ) जाते हैं परन्तु स्त्रियां अब भी पुरुषों के निषेध करने पर भी नहीं मानती हैं अर्थात् इस कार्य को नहीं छोड़ती हैं ॥ ५-क्योंकि उन (धूर्तों ) को मौका मिलगया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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