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________________ ४७६ जैनसम्प्रदायशिक्षा। फैल जाता है अर्थात् बहत से आदमियों के शरीरों में घुस कर बड़ी हानि करता है, इस के फैलने के समय में भी कुछ आदमियों के शरीर को यह रोग लगता है तथा कुछ आदमियों के शरीर को नहीं लगता है, इस का क्या कारण है इस बात का निर्णय ठीक रीति से अभीतक कुछ भी नहीं हुआ है, परन्तु अनुमान ऐसा होता है कि कुछ लोगों के शरीर के बन्धेज विशेष के होने से तथा आहार विहार से प्राप्त हुई निकृष्ट ( खराब) स्थितिविशेष के द्वारा उन के शरीर के दोष ऐसे चेपी रोगों के परमाणुओं को शीघ्र ही ग्रहण कर लेते हैं तथा कुछ लोगों के शरीर के बन्धेज विशेष ढंग के होने से तथा आहार विहार के द्वारा प्राप्त हुई उत्कृष्ट ( उत्तम ) स्थिति विशेष के द्वारा उन के शरीर के तत्त्वोंपर ऐसे रोगों के चेपी तत्त्व शीघ्र असर नही कर सकते हैं, इस का प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि-एक ही स्थान में तथा एक ही घर में किसी को यह रोग लग जाता है और किसी को नहीं लगता है, इस का कारण केवल वही है जो कि अभी ऊपर लिख चुके हैं। लक्षण-फूट कर निकलनेवाले रोगों में से शीतला आदि रोगों में प्रथम तो यह विशेषता है कि ये रोग प्रायः वच्चों के ही होते हैं परन्तु कभी २ ये रोग किसी २ बड़ी अवस्थावाले के भी होते हुए देखे जाते हैं, इन में दूसरी विशेषता यह है कि--जिस के शरीर में ये रोग एक बार हो जाते हैं उस के फिर ये रोग प्रायः नहीं होते हैं, इन में तीसरी विशेषता यह है कि जिस बच्चे के शीतला का चेप लगा दिया गया हो अर्थात् शीतला खुदवा डाली हो (टीका लगवा दिया हो) उस को प्रायः यह रोग फिर नहीं होता है, यदि किसी २ को होता भी है तो थोड़ा अर्थात् बहुत नरम (मन्द) होता है किन्तु शीतला न खुदाये हुए बच्चों में से इस रोग से सौ में से प्रायः चालीस मरते हैं और शीतला को खुदाये हुए बच्चों में से प्रायः सौ में से छः ही मरते हैं । __ इस प्रकार का विष शरीर में प्रविष्ट ( दाखिल) होने के पीछे पूरा असर कर लेने पर प्रथम ज्वर के रूप में दिखलाई देता है और पीछे शरीर पर दाने फूट कर निकलते हैं, यही उस के होने का निश्चय करानेवाला चिह्न है। १-तात्पर्य यह है कि प्रत्येक कार्य के लिये देश काल और प्रकृति आदि के सम्बन्ध से अनेक साधनों की आवश्यकता होती है, इस लिये जिन लोगों का शरीर उक्त रोगों के कारणों का आश्रयणीय ( आश्रय लेने योग्य ) होता है उन के शरीर में चेपी रोग प्रकट हो जाता है तथा जिन का शरीर उक्त सम्बन्ध से रोगों के कारणों का आश्रयणीय नहीं होता है उन के शरीर में चेपी रोग के परमाणुओं का असर नही होता है ॥ २-यह रोग विलायत में भी पहिले बहुत होता था, डाक्टर मूर साहब लिखते हैं कि-लण्डन में जहां टीका के प्रचलित होने के पहिले प्रत्येक दश मृत्यु में एक मृत्यु शीतला के कारण होती थी वहां अब प्रत्येक पचासी मृत्यु में केवल एक ही शीतला से होती है. पन्द्रह वर्ष तक लण्डन के शीतलाअस्पताल में सौ शीतला केरोगियों में से पैतीस मनुष्यों के लगभग मरते थे परन्तु जब से टीका :की चाल निकाली गई तब से दो सौ मनुष्यों में से जिन्हों ने टीका लगवाया था केवल एक ही मरा । जिन जातियों में टीका के लगाने का प्रचार नहीं हैं बहुधा एक हजार में से आठ सौ मनुष्यो के शीतला निकलती है परन्तु उन में जो टीका लगवाते हैं एक हजार में से केवल छाहीको शीतला निकलती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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