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________________ ३४ जैनसम्प्रदायशिक्षा। कोई विद्यापात्र हैं, कोई धन के धाम ॥ कोई दोनों रहित हैं, कोइ उभयविश्राम ॥४८॥ देखो! इस संसार में कोई तो विद्या के पात्र हैं, कोई धन के पात्र हैं, कोई विद्या और धन दोनों के पात्र हैं और कोई मनुष्य ऐसे भी हैं जो न विद्या और न धन के पात्र हैं ॥४८॥ पांच होत ये गर्भ में, सब के विद्या वित्त ॥ आयु कर्म अरु मरण विधि, निश्चय जानो मित्त ॥४९॥ हे मित्र ! इस बात को निश्चय कर जान लो कि–पूर्वकृत कर्म के योग से जीवधारी के लिये-विद्या, धन, आयु, कर्म और मरण, ये पांच बातें गर्भ ही में रच दी जाती हैं ॥ ३९॥ चित्रगुप्त की भाल में, लिखी जु अक्षर माल ॥ बहु श्रम में हू नाहँ मिटै, पण्डित बरु भूपाल ॥ ५० ॥ जो कर्म के अक्षर ललाट में लिखे हैं उसी को चित्रगुप्त कहते हैं (अर्थात् छिपा हुआ लेख) और इसी को लौकिक शास्त्रवाले विधाता के लिखे हुए अक्षर भी कहते हैं, तथा जैनधर्मवाले पूर्वकृत कर्म के स्वाभाविक नियम के अनुसार अक्षर मानते हैं, तात्पर्य इस का यही है कि-जो पूर्वकृत कर्म की छाप मनुष्य के ललाट पर लगी हुई है उस को लोग नहीं जान सकते हैं और न उस लेख को कोई मिटा सकता है, चाहे पण्डित और राजा कोई भी कितना ही यन क्यों न करे ॥५०॥ वन रण वैरी अग्नि जल, पर्वत शिर अरु शून्य ॥ सुप्त प्रमत्त अरु विषम थल, रक्षक पूरब पुन्य ॥ ५१ ॥ ___ जंगल में, लड़ाई में, दुश्मनों के सामने, अग्नि लगने पर, जल में, पर्वत पर, शून्य स्थान में, निद्रा में, प्रमाद की अवस्था में और विषम स्थान में, इतने स्थानों में मनुष्य का किया हुआ पूर्व जन्म का अच्छा कर्म ही रक्षा करता है ॥ ५१ ॥ नखे शिष्य उपदेश करि, दारा दुष्ट बसाय ॥ वैरी को विश्वास करि, पण्डित हू दुख पाय ॥ ५२ ॥ १-इहीं बातों को लोक में विधाता का छठी का लेख कहते हैं, क्योंकि दैव और विधाता ये दोनों कर्म ही के नाम हैं ॥ २ तात्पर्य यह है कि इस संसार में मनुष्य की हानि और लाभ का हेतु केवल पूर्व जन्म का किया हुआ कर्म ही होता है, यही मनुष्य को विपत्ति में डालता है और यही मनुष्य को विपत्तिसागर से पार निकालता है, इस लिये उस कर्म के प्रभाव से जो सुख चा दुःख अपने को प्राप्त होनेवाला है, उस को देवता और दानव आदि कोई भी नहीं हटा सकता है, इस लिये हे बुद्धिमान् पुरुषो ! जरा भी चिन्ता मत करो, क्योंकि जो आपने भाग्य का है वह पराया कभी नहीं हो सकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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