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________________ चतुर्थ अध्याय । ४-तेजरा-यह ज्वर ४८ घण्टे के अन्तर से आता है अर्थात् बीच में एक दिन नहीं आता है', इस को तेजरा कहते हैं परन्तु इस ज्वर को कोई आचार्य एकान्तर कहते हैं, यह ज्वर मेद नामक धातु में रहता है। ५-चौथिया-यह ज्वर ७२ घण्टे के अन्तर से आता है अर्थात् बीच में दो दिन न आकर तीसरे दिन आता है, इस को चौथिया ज्वर कहते हैं, इस का दोष अस्थि (हाड़) नामक धातु में तथा मज्जा नामक धातु में रहता है। इस ज्वर में दोष भिन्न २ धातुओं का आश्रय लेकर रहता है इसलिये इस ज्वर को वैद्यजन रसगत, रक्तगत, इत्यादि नामों से कहते हैं, इन में पूर्व २ की अपेक्षा उत्तर २ अधिक भयंकर होता है, इसी लिये इस अनुक्रम से अस्थि तथा मज्जा धातु में गया हुआ (प्राप्त हुभा) चौथिया ज्वर अधिक भयङ्कर होता है, इस ज्वर में जब दोष वीर्य में पहुंच जाता है तब प्राणी अवश्य मर जाता है । __ अब विषमज्वरों की सामान्यतया तथा प्रत्येक के लिये भिन्न २ चिकित्सा लिखते हैं: चिकित्सा-१-सन्तत ज्वर-इस ज्वर में-पटोल, इन्द्रयव, देवदारु, गिलोय और नीम की छाल का क्वाथ देना चाहिये ।। २-सततज्वर-इस ज्वर में-त्रायमाण, कुटकी, धमासा और उपलसिरी का क्वाथ देना चाहिये। ३-अन्येशुष्क (एकान्तर)-इस ज्वर में-दाख, पटोल, कडुभा नीम, मोथ, इन्द्रयव तथा त्रिफला, इन का क्वाथ देना चाहिये। ४-तेजरा-इस ज्वर में-बाला, रक्तचन्दन, मोथ, गिलोय, धनिया और सोंठ, इन का काथ शहद और मिश्री मिला कर देना चाहिये। __ ५-चौथिया-इस ज्वर में-अडूसा, आँवला, सालवण, देवदारु, जौं, हरड़े और सोंठ का काथ शहद और मिश्री मिला कर देना चाहिये। । सामान्य चिकित्सा-६-दोनों प्रकार की (छोटी बड़ी) रीगणी, सोंठ, १-अर्थात् तीसरे दिन आता है, इस में घर के आने का दिन भी ले लिया जाता है अर्थात् जिस दिन आता है उस दिन समेत तीसरे दिन पुनः आता है ॥ २-तीसरे दिन से तात्पर्य यहां पर ज्वर आने के दिन का भी परिगणन कर के चौथे दिन से है, क्योंकि ज्वर आने के दिन का परिगणन कर के ही इस का नाम चातुर्थिक वा चौथिया रक्खा गया है ॥ ३-इस ज्वर में अर्थात् विषमज्वर में ॥ ४-अर्थात् आश्रय की अपेक्षा से नाम रखते हैं, जैसे-सन्तत को रसगत, सतत को रक्तगत, अन्येशुष्क को मांसगत, तेजरा को मेदोगत तथा चौथिया को मज्जा स्थिगत कहते हैं ॥ ५-अर्थात् सन्तत से सतत, सतत से अन्येषुष्क, अन्येशुष्क से तेजरा और तेजरे से चौथिया अधिक भयंकर होता है ॥ ६-अर्थात् सब की अपेक्षा चौथिया ज्वर अधिक भयंकर होता है ॥ ७-सम्पूर्ण विषमज्वर सन्निपात से होते हैं परन्तु इन में जो दोष अधिक हो उन में उसी दोष की प्रधानता से चिकित्सा करनी चाहिये, विषमज्वरों में भी 'देह का ऊपर नीचे से (वमन और विरेचन के द्वारा) शोधन करना चाहिये तथा स्निग्ध और उष्ण अन्नपानों से इन (विषम ) ज्वरों को जीतना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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