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________________ द्वितीय अध्याय ३१ अन्याय से कमाया हुआ धन केवल दश वर्ष तक रहता है, और सोलहवं वर्ष तक वह सब धन मूलसहित नष्ट हो जाता है ॥ ३२ ॥ विद्या में व्है कुशल नर, पावै कला सुजान ॥ द्रव्य सुभाषित को हुँ पुनि, संग्रह करि पहिचान ॥ ३३ ॥ विद्या में कुशल होकर सुजान पुरुष अनेक कलाओं को पा सकता है अर्थात् विद्या भीखा हुआ मनुष्य यदि सब प्रकारका गुण सीखना चाहे तो उस को वह गुणः शीघ्र ही प्राप्त हो सकता है, फिर विद्या पढ़े हुये मनुष्य को चतुराई प्राप्त करनी हो तो - सुभाषित ग्रन्थ ( जो कि अनेक शास्त्रों में से निकाल कर बुद्धिमान् श्रेष्ठ कवियों ने बनाये हैं, जैसे – चाणक्यनीति, भर्तृहरिशतक और सुभाषितरत्नभाण्डागार आदि ) सीखने चाहियें, क्योंकि जो मनुष्य सुभाषितमय द्रव्य का संग्रह नहीं करता है वह सभा के बीच में अपनी वाणी की विशेषता ( खूर्व ) को कभी नहीं दिखला सकता है ॥ ३३ ॥ शूर वीर पण्डित पुरुष, रूपवती जो नार ॥ ये तीन हुँ जहँ जात हैं, आदर पावें सार || ३४ || वीर पुरुष, पण्डित पुरुष और रूपवती स्त्री, ये तीनों जहां जाते हैं, वहीं सम्मान ( आदर ) पाते हैं ॥ ३४ ॥ शुर नृप अरु पण्डित जो पुरुष, कबहुँ न होत समान ॥ राजा निज थल मानिये, पण्डित पूज्य जहान || ३५ ॥ राजा और पण्डित, ये दोनों कभी तुल्य नहीं हो सकते हैं ( अर्थान पण्डित की बराबरी राजा नहीं कर सकता है ), क्योंकि राजा तो अपने ही देश में माना जाता है और पण्डित सब जगत् में मान पाता है ॥ ३५ ॥ रुपचन्त जो मूर्ख नर, जाय सभा के बीच ॥ मोन गहे शोभा रहे, जैसे नारी नीच ॥ ३६ ॥ विवाहित रूपवान् पुरुष को चाहिये कि किसी सभा ( दर्बार ) में जाकर मुंह से अक्षर न निकाले ( कुछ भी न बोले ), क्योंकि मौन रहने से उस की शोभा बनी रहेगी, जैसे दुष्टा स्त्री को यदि उस का पति बाहर न निकलने देवे तो घर की शोभा ( आबरू ) बनी रहती है ॥ ३६ ॥ कहा भयो जु विशाल कुल, जो विद्या करि हीन ॥ सुर नर पूजहिं ताहि जो, मेधावी अकुलीन ॥ ३७ ॥ मनुष्य विद्याहीन है, उस को उत्तम जाति में जन्म लेने से भी क्या सिद्धि मिल सकती है, क्योंकि देखो ! नीच जातिवाला भी यदि विद्या पढ़ा है तो उनकी मनुष्य और देवता भी पूजा करते हैं ॥ ३७ ॥ १- इस बात को वर्तमान में प्रत्यक्ष ही देख रहे हैं ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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