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________________ ४४४ जैनसम्प्रदायशिक्षा। वन्धेरण-किसी वनस्पति के पत्ते आदि को गर्म कर शरीर के दुखते हुए स्थान पर बाँधने को बन्धेरण कहते हैं। मुरब्बा-हरड़ आँवला तथा सेव आदि जिस चीज़ का मुरब्बा बनाना हो उस को उबाल कर तथा धो कर दुगुनी या तिगुनी खांड या मिश्री की चासनी में डुबा कर रख छोड़ना चाहिये, इसे मुरब्बा कहते हैं। मोदक-बड़ी गोली को मोदक कहते हैं, मेथीपाक तथा सोंठपाक आदि के मोदक गुड़ खांड़ तथा मिश्री आदि की चासनी में बाँधे जाते हैं। मन्थ-दवा के चूर्ण को दवा से चौगुने पानी में डाल कर तथा हिला कर या मथकर छान कर पीना चाहिये, इसे मन्थ कहते हैं । __ यवागू-कांजी-अनाज के आटे को छःगुने पानी में उकाल कर गाढ़ा कर के उतार लेना चाहिये। लेप-सूखी हुई दवा के चूर्ण को अथवा गीली वनस्पति को पानी में पीस कर लेप किया जाता है, लेप दोपहर के समयमें करना चाहिये, ठंढी वख्त नहीं करना चाहिये, परन्तु रक्तपित्त, सूजन, दाह और रक्तविकार में समय का नियम नहीं है। लूपड़ी वा पोल्टिस-गेहूँ का आटा, अलसी, नींब के पत्ते तथा कांदा आदि को जल में पीस कर अथवा गर्म पानी में मिला कर लुगदी बना कर शोथ (सूजन) तथा गुमड़े आदिपर बांधना चाहिये, इसे लूपड़ी का पोल्टिस कहते हैं। सेक-सेक कई प्रकार से किया जाता है-कोरे कपड़े की तह से, रेत से, ईंट से, गर्म पानी से, भरी हुई काच की शीशी से, और गर्म पानी में डुबाकर निचोड़े हुए फलालैन वा ऊनी कपड़े से, अथवा बाफ दिये हुए कपड़े से इत्यादि। स्वरस-किसी गीली वनस्पति को बाँट (पीस) कर आवश्यकता के समय १-यदि कोई कड़ी वस्तु हो तो फिटकड़ी आदि के तेजाब से उसे नरम कर लेना चाहिये ।। २-मधुपक हरड आदि को भी मुरब्बा ही कहते हैं ।। ३-अभयादि मोदक आदि कई प्रकार के मोदक होते हैं ॥ ४-लेप के दो भेद हैं-प्रलेप और प्रदेह, पित्तसम्बंधी शोथ में प्रलेप तथा फफसम्बंधी शोथ में प्रदेह किया जाता है, (विधान वैद्यक ग्रन्थों में देखो)॥ ५-रात्रि में लेप नहीं करना चाहिये परन्तु दुष्ट व्रणपर रात्रि में भी लेप करने में कोई हानि नहीं है, यह भी स्मरण रखना चाहिये कि प्रायः लेपपर लेप नही किया जाता है ॥ ६-सेक के-स्नेहन, रोपण और लेखन, ये तीन मुख्य भेद है, वातपीड़ा में-स्नेहन, पित्तपीड़ा में रोपण तथा कफपीड़ा में लेखन सेक किया जाता है, इन का विधान आदि सब विषय वैद्यक ग्रन्थों में देखना चाहिये, यह भी स्मरण रहे कि-सेक दिन में करना चाहिये परन्तु अति आवश्यक अर्थात् महादुःखदायी रोग हो तो रात्रि के समय में भी करना चाहिये ॥ ७-पानी की बाफ से युक्त फलालेन अथवा ऊनी कपड़े से सेक करने की विधि पहिले लिख चुके हैं ॥ ८-वनस्पति वह लेनी चाहिये जो कि सरदी अग्नि और कीड़े आदि से बिगड़ी न हो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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