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________________ जैनसम्प्रदायशिक्षा | लेना चाहिये ऐसा करने से यदि उस में आल्ब्युमीन होगा तो अलग हो जावेगा, पीछे मूत्र को काच की नली में लेकर उस में आधा लीकर पोटास अथवा सोडा डालना चाहिये, पीछे नीलेथोथे के पानी की थोड़ी सी बूंदें डालनी चाहियें परन्तु नीलेथोथे की बूँदें बहुत ही होशियारी से ( एक बूँद के पीछे दूसरी बूँद ) डालना चाहिये तथा नली को हिलाते जाना चाहिये, इस तरह करने से वह मूत्र आसमानी रंग का तथा पारदर्शक ( जिस में आर पार दीखे ऐसा ) हो जाता है, पीछे उस को खूब उबालना चाहिये, यदि उस में शक्कर होगी तो नली के पेंदे में नारंगी के रंग के समान लाल पीले पदार्थ का जमाव होकर ठहर जावेगा तथा स्थिर होने के बाद वह कुछ लाल और भूरे रंगा का हो जावेगा, यदि ऐसा न हो तो समझ लेना चाहिये कि मूत्र में शक्कर नहीं जाती I ५- खार और खटास ( एसिड और आल्कली क्षार ) - मूत्र में खार का भाग जितना जाना चाहिये उस से अधिक जाने से रोग होता है, खार के अधिक जाने की परीक्षा इस प्रकार होती है कि - हलदी का पानी करके उस में सफेद ब्लाटिंग पेपर ( स्याही चूसनेवाला कागज़ ) भिगाना चाहिये, फिर उस कागज़ को सुखाकर उस में का एक टुकड़ा लेकर मूत्र में भिगा देना चाहिये, यदि मूत्र में खार का भाग अधिक होगा तो इस पीले कागज़ का रंग बदल कर नारंगी अथवा बादामी रंग हो जायगा, फिर इस कागज को पीछे किसी खटाई में भिगाने से पूर्व के समान पीला रंग हो जावेगा । ४२० यह खार की परीक्षा की रीति कह दी गई, अब अधिक खटास जाती हो उस की परीक्षा लिखते हैं- एक प्रकार का लीटमस पेपर बना हुआ तैयार आता है। उसे लेना चाहिये, यदि वह न मिल सके तो ब्लाटिंगपेपर को लेकर उसे कोबिज के रस में भिगाना चाहिये, फिर उसे सुखा लेना चाहिये, तब उस का आसमानी रंग हो जावेगा, उस कागज का टुकड़ा लेकर मूत्र में भिगाना चाहिये, यदि मूत्र में खटास अधिक होगा तो उस कागज़ का रंग भी अधिक लाल हो जावेगा और यदि खटास कम होगा तो कागज़ का रंग भी कम लाल होगा, तात्पर्य यह है की खटास की न्यूनाधिकता के समान ही कागज़ के लाल रंग की भी न्यूनाधिकता होगी । ३- सूक्ष्मदर्शक यन्त्र के द्वारा जो मूत्रपरीक्षा की जाती है उस में ऊपर लिखी हुई दोनों रीतियों में से एक भी रीति के करने की आवश्यकता नहीं होती है, १ - डाक्टर लोग हल्दी का टिंक्चर लेते हैं । हुआ भी टरमेरिक पेपर इंगलैंड से आता है, यदि पूर्वोक्त (पहिले कहा हुआ ) कागज लेना चाहिये ॥ अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं ॥ २ - इस प्रकार की मूत्रपरीक्षा के लिये बना वह न होवे तो हलदी में भिगाया हुआ ही ३- अधिक खटास के जाने से भी शरीर में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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