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________________ चतुर्थ अध्याय । ३५५ नाम को रोते ही हैं, जिन मनुष्यों को कुछ भी नहीं मिलता है वे यही कहते हैं कि सेठजी ने बखेर का तो नाम किया था, कहीं २ कुछ पैसे फेंकते थे, ऐसे फेंकने से क्या होता है, वह कंजूस क्या बखेर करेगा इत्यादि, देखिये! यह कैसी बात है-एक तो रुपये गमाना और दुसरे बदनामी करना, इस लिये बखेर की प्रथा को अवश्य बन्द कर देना चाहिये, हां यदि सेठजी के हृदय में ऐसी ही उदारता हो तथा द्रव्य खर्चकर नामबरी ही लेना चाहते हों तो लूले और लँगडों के लिये सदावर्त आदि जारी कर देना चाहिये । बाग बहारी अर्थात् फूल टट्टी-बाग बहारी की भी वर्तमान समय में वह चर्चरी है किरंगीन कागज़ और अबरख ( भोडल) के फूलों के स्थान में (यद्यपि वे भी फजूल खर्ची में कुछ कम नहीं थे) हुंडी, नोट, चांदी सोने की कटोरियां, बादाम, रुपये और अशर्फियों को तख्तामें लगाने की नौबत आपँहुची। यों तो सब ही लोग अपने रुपये और माल की रक्षा करते हैं परन्तु हमारे देशभाई अपने द्रव्य को आंखों के सामने खडे होकर खुशी से लुटवा देते हैं और द्रव्यको खर्च कर के भी कुछ लाभ नहीं उठाते हैं, हां यह तो अवश्यमेव सुनने में आता है कि अमुक लाल या साहूकार की बरात में फूल टट्टी अच्छी थी, हरतरह बचाई गई परन्तु न बची, लड़कीवालेके सामने तक न पहुँचने पाई कि फूल टट्टी लूट गई, अब प्रथम तो यही विचार करने का स्थान है कि विवाह के कार्य की प्रसन्नता के पहिले लुटने की अशुभ वाणी का मुँह से निकलना (कि अमुक की फूल टट्टी लुट गई ) कैसा बुरा है । इसके सिवाय इस में कभी २ लट्ट नी चल जाते हैं, जब टोपी तथा पगड़ी उतर जाती है तब वह फूल हाथ में आते हैं मानो लूटनेवालों की प्रतिष्ठा के जाने पर कुछ मिलता है, आपस में दंगा हो जाने से बहुधा ने जिष्ट्रेट तक भी नौबत पहुचती है. सब से बड़ी शोचनीय बात यह है कि विवाह जैसे शुभ कार्य के आरम्म ही में गमी कारबममान करना पड़ता है। आतिशबाजी-आतिशबाजी से न तो कोई सांसारिक ही लाभ है और न पारलौकिक ही बरन् वर्षों के उपार्जन किये हुए धन की क्षणमात्र में जला कर राख की ढेरी का बना देना है, इस में भीड़भाड़ भी इतनी हो जाती है कि एक एक के ऊपर दश दश गिरते हैं एक इधर दौड़ता है एक उधर दोड़ता है इस से यहां तक धक्कमधक्का मच जाती है कि-बहुधा लोग बेदम हो जाते हैं, तमागा यह होता है कि- किसी के पैर की उँगली पिची, किसी की डाढ़ी जली, किसी की भौओं तथा मूंछों का सफाया हुआ, किसी का दुपट्टा तथा किसी का अंगरखा जल गया था किसी २ के हाथ पाँव भुन गये, इस से बहुधा मकानों के छप्परों में भी आग लग जाती है कि जिस से चारों ओर हाहाकार मच जाता और उस से अन्यत्र भी आग लगने के द्वारा बहुधा अनेक हानियां हो जाती हैं, कभी २ मनुष्य तथा पशु भी जल कर प्राणों को त्यागते हैं, इस के अतिरिक्त इस निकृष्ट कार्य से हवा भी बिगड़ जाती है कि जिस से प्राणी मात्र की आरोग्यता में अन्तर पड़ जाता है, इस से द्रव्य का नुकसान तो होता ही है किन्तु उस के साथ में महारम्भ (जीवहिं. साजन्य अपराध) भी होता है, तिस पर भी तुर्रा यह है कि-घर वालों को कामों की अधिकता से घर फूंक के भी तमाशा देखने की नौबत नहीं पहुँचती है। रण्डी (वेश्या) का नाच-सत्य तो यह है कि-रण्डियों के नाच ने इस भारत को गारत कर दिया है, क्योंकि तबला और सारंगी के विना भारत वासियों को कल ही नहीं पड़ती है, जब यह दशा है तो बरात में आने जाने बालों के लिये वह सञ्जीवनी क्यों न हो । समधी तथा समधिन का भी पेट उस के बिना नहीं भरता है, ज्यों ही बरात चली त्यों ही विषयी जन विना बुलाये चलने लगते हैं, वेश्या को जो रुपया दिया जाता है उस का तो सत्यानाश होता ही है किन्तु उस के साथ में अन्य भी बहुत सी हानियों के द्वार खुल जाते हैं देखो ! नाच ही में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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