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________________ चतुर्थ अध्याय । ३३९ में कैसे अधोदशापन (नीच दशा को पहुँचेहुए) हैं, जिन को पूर्वाचार्य तो शारीरिक उन्नति के शिखरपर ले जाने के कारण समझ कर धर्म की आवश्यक क्रियाओं में गिनते थे, परन्तु अब वर्तमान समय में उन का प्रचार शायद विरले ही स्थानों में होगा, इस का कारण यही है कि-वर्तमान समय में राज्यकृत अथवा जातिकृत न तो ऐसा कोई नियम ही है और न लोगों को इन बातों का ज्ञान ही है, इस से लोग अपने हिताहित को न विचार कर मनमाना वर्ताव करने लगे हैं, जिस का फल पाठकगण नेत्रों से प्रत्यक्ष ही देख रहे हैं कि मनुष्यगण तनलीन, मन मलीन, द्रव्यरहित और पुत्र तथा परिवार आदि से रहित हो गये हैं, इन सब दुःखोंका कारण केवल न करने योग्य व्यवहार का करना ही है, इस सर्व हानि को व्यवहारनय की अपेक्षा समझना चाहिये, इसी को-दैव कहो, चाहे कर्म कहो, चाहे भवितव्यता कहो। ___ पहिले जो हम ने पांच समवाय रोग होने के कारण लिखे हैं-वे सब कारण (पाच समवाय) निश्चय और व्यवहारनय के विना नहीं होते हैं, इन में से बिजुली या मकान आदि के गिरनेद्वारा जो मरना या चोट का लगना है, वह भवितव्यता समवाय है तथा यह समवाय सब ही समवायों में प्रधान है, गर्मी और ठंढ के परिवर्तन से जो रोग होता है उस में काल प्रधान है, प्लेग और हैजा आदि रोगों के होने में बंधे हुए समुदायी कर्म को प्रधान समझना चाहिये, इस प्रकार पांचां समवायों के उदाहरणों को समझ लेना चाहिये, निश्चयनय के द्वारा तो यह जाना जाता है कि उस जीव ने वैसे ही कर्म बांधे थे तथा व्यवहारनय से यह जाना जाताहै कि-उस जीव ने अपने उद्यम और आहार विहार आदि को ही उस प्रकार के रोग के होने के लिये किया है, इस लिये यह जानना चाहिये किनिश्चयनय तो जानने के योग्य और व्यवहारनय प्रवृत्ति करने के योग्य है, देखो! बहुत से रोग तो व्यवहारनय से प्राणी के विपरीत उपचार और वर्तावों से ही होते हैं, काल का तो स्वभाव ही वर्त्तने का है इस लिये कभी शीत और कभी गर्म का परिवर्तन होता ही है, अतः अपनी प्रकृति, पदार्थों के स्वभाव और ऋतुओं के स्वभाव के अनुसार वर्ताव करना तथा उसी के अनुकूल आहार और विहार का उपचार करना प्राणी के हाथ में है, परन्तु कर्म अति विचित्र है, इस लिये कुदरती कारणों से जो रोग के कारण पैदा होते हैं वे कर्मवश विरले ही आदमियों के शरीर में रोगोत्पत्ति करते हैं, वातावरण में जो २ परिवर्तन होता है वह तो रोग तथा रोग के कारणों को दूर करनेवाला है परन्तु उस में भी अपने कर्म के वश कोई प्राणी रोगी हो जाते हैं, इस लिये ऋतुओं का जो परिवर्तन है वह वातावरण अर्थात् हवा की शुद्धि से ही सम्बन्ध रखता है परन्तु उस से भी जो पुरुष रोगी हो जाते हैं उन के लिये तो इन विकारों को दैवकृत भी मान सकते हैं, इसलिये वास्तव में तो यही उचित प्रतीत होता है कि हर किस्म के रोगों को पहिचान कर ही उन का यथोचित इलाज करना चाहिये, यही इस ग्रन्थ की सम्मति है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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