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________________ चतुर्थ अध्याय । ३३३ है परन्तु बड़ी अज्ञानता से बड़ा कष्ट होता है अर्थात् बड़े २ रोग उत्पन्न होकर बहुत दिनों तक ठहरते हैं तथा उन के कारणों को यदि न रोका जावे तो वे रोग गम्भीर रूप धारण करते हैं । पहिले कह चुके है कि-रोग के दूर करने का सब से पहिला उपाय रोग के कारण को रोकना ही है, क्योंकि रोग के कारण की रुकावट होने से रोग आप ही शान्त हो जावेगा, जैसे यदि किसी को अजीर्ण से बुखार आ जावे और वह एक दो दिनतक लंघन कर लेवे अथवा मूंग की दाल का पतलासा पानी अथवा अन्य कोई बहुत हलका पथ्य लेवे तो वह ( अजीर्णजन्य ज्वर ) शीघ्र ही चला जाता है परन्तु रोग के कारण को समझे विना यदि रोग की निवृत्ति के अनेक उपाय भी किये जावें तो भी रोग बढ़ जाते हैं, इस से सिद्ध है कि रोग के कारण को समझ कर तदनुकूल पथ्य करना जितना लाभदायक होता है उतनी लाभदायक ओषधि कदापि नहीं हो सकती है, क्योंकि देखो ! पथ्य के न करनेपर ओषधि से कुछ भी लाभ नहीं होता है तथा पथ्य करनेपर ओषधि की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती है, इस बात का सदा ही ध्यान रखना चाहिये कि ओषधि रोग को नहीं मिटाती है किन्तु केवल रोग के मिटाने में सहायक मात्र होती है । ऊपर जिस का वर्णन कर चुके हैं वह रोग को मिटानेवाली जीव की स्वाभा विक शक्ति निश्चयनय से शरीर में रातदिन अपना काम करती ही रहती है, उस को जब सानुकूल आहार और विहार मिलता है तथा सहायक औषधि का संसर्ग होना है तब शीघ्र ही संयोगरूप प्रयत्न के द्वारा कर्म विशेषजन्य रोगपर जीव की जीत होती है अर्थात् साताकर्म असाताकर्म को हटाता है, यह व्यवहारनय है, जो वैद्य वा डाक्टर ऐसा अभिमान रखते हैं कि रोग को हम मिटाते हैं उन का यह अभिमान विलकुल झूठा है, क्योंकि काल और कर्म से बड़े २ देवता भी हार चुके हैं तो मनुष्य की क्या गणना है ? देखो ! पांच समवायों में से मनुष्य का एक समवाय उद्यम है, वह भी पूर्णतया तब ही सिद्ध होता है जब कि पहिले को चारों समवाय अनुकूल हो, हां वेशक यद्यपि कई एक बाहरी रोग काट छांट के द्वारा योग्य उपचारों से शीघ्र अच्छे हो सकते हैं तथापि शरीर के भीतरी रोगों पर तो रोगनाशिका ( रोग का नाश करनेवली ) स्वाभाविकी ( स्वभावसिद्ध ) शक्ति ही काम देती है, हां इतनी बात अवश्य है कि - 5- उस में यदि दवा को भी समझ बूझकर युक्ति से दिया जावे तो वह ( ओषधि ) उस स्वभाविकी शक्ति की सहायक हो जाती है परन्तु यदि विना समझेबूझे दवा दी जावे तो वह ( दवा ) १ - जैसा वैद्यक ग्रन्थों में लिखा है कि- " पथ्ये सति गदार्तस्य किमौषधनिषेवणैः ॥ पथ्येऽसति गटार्त्तस्य किमौषधनिषेवणैः ॥ १ ॥" अर्थात् पथ्य के करने पर रोग से पीड़ित पुरुष को औषध सेवन की क्या आवश्यकता है और पथ्य न करने पर रोग से पीड़ित पुरुष को औषध सेवन से क्या लाभ है ॥ १ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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